Wednesday, April 17, 2019

शंकराचार्य और सरसंघचालक एक_तुलनात्मक_अध्ययन

वरिष्ठ आईपीएस चाचाजी  श्री Suvrat Tripathi की कलम से।

#शंकराचार्य_और_सरसंघचालक_एक_तुलनात्मक_अध्ययन

सनातन धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था के विरुद्ध बौद्ध धर्म दलितों और दबे-कुचलों की आवाज बनकर उभरा। एक जनक्रांति हुई तथा सामंतवाद की चूलें हिल गई। मुझे इतिहास का कोई विशेष ज्ञान नहीं- पुराणों और शास्त्रों के अध्ययन को आधार बनाकर मैं कुछ प्राक्कल्पनाओं(hypothesis) को प्रस्तुत कर रहा हूं जिसकी प्रमाणिकता के पीछे मेरे पास कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है। यह मेरे अंतर्मन की आवाज है- परिकल्पना है- मेरा बौद्धिक विलास है। ब्राह्मण कभी हारता नहीं है- वह हर पराजय में जय देखता है। जैसे Germany तथा England का साम्राज्यवाद world war से ढह गया तथा colonies समाप्त हो गई तथा भारत जैसे तमाम देश स्वतंत्र हो गए वैसे ही ब्राह्मण-क्षत्रिय, ब्राह्मण-ब्राह्मण तथा क्षत्रिय-क्षत्रिय संघर्ष की आग में वर्णाश्रम व्यवस्था झुलस कर रह गई तथा सनातन धर्म ढलान पर पहुंच गया। बौद्ध धर्म के बाद तो सनातन धर्म के ध्वंसावशेष भी ढह गए। गांधीजी का नए बुद्ध तथा ईसा के प्रतीक के रूप में स्वागत हुआ तथा कहा गया कि-" The greatest Christian of the world is out of Christianity"
डा अंबेडकर का बोधिसत्व के अवतार के रूप में अविर्भाव हुआ। #इंग्लैंड_में_मोदीजी_ने_भारत_को_गांधी_तथा_बुद्ध_का_देश_घोषित_किया तथा #भारत_में_अपने_उद्गारों_से_और_कार्यों_से_देश_को_अंबेडकरमय_बना_दिया।
बौद्ध धर्म जब भारत भूमि पर हावी हो गया था, तो महर्षि पतंजलि के शिष्य पुष्यमित्र शुंग ने बौद्ध धर्म का उन्मूलन कर दिया तथा अन्य कई कारनामे में भी उसके नाम के साथ जोड़े गए। वर्ण व्यवस्था को जाति व्यवस्था में बदल दिया गया तथा बुद्धिजीवियों को ऐसा लगा कि जो ज्वाला दब गई है वह फिर कभी भड़क सकती है। लिहाजा शंकराचार्य का वेदांत दर्शन सामने आया जिसमें चिंतन को उच्चतम सोपान तक ले जाया गया तथा शास्त्रार्थ में शंकराचार्य ने दिग्विजय की। तब से हिंदुत्व शब्द एक तरह से शंकराचार्य के दर्शन का पर्यायवाची बन बैठा। शंकराचार्य ने समस्त पंथों का समन्वय किया-

यं शैवाः समुपासते शिव इति
ब्रह्मेति वेदान्तिनो।
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्मेति मीमांसकाः।।
अर्हंन्नित्यथ जैनशासनरताः तर्केति नैयायिकाः।
सोऽयं नो विदधातु वाञ्छितफलं  त्रैलोक्यनाथो हरिः।।

अर्थात जिसकी शैव लोग शिव के रूप में उपासना करते हैं, तथा वेदांती ब्रह्म के रूप में, बौद्ध बुद्ध के रूप में,मीमांसक कर्म के रूप में, जैनी अर्हन् के रूप में तथा नैयायिक तर्क के रूप में- वे तीनो लोक के नाथ-हरि हमें वांछित फलों को प्रदान करें।
यह दृष्टिकोण शंकराचार्य की देन के रूप में परंपरा में मान्य है। मैं इतिहास का ज्ञाता नहीं- कोई ऐतिहासिक गलती हो तो विद्वान मेरी मूर्खता का बयान करने की जगह सुधारने की कृपा करें- मैं क्षमा याचना पूर्वक स्वीकार कर लूंगा। मेरा इतिहास ज्ञान मात्र शास्त्रों तथा पुराणों तथा साहित्य और उपाख्यानों एवं अंत में दंत कथाओं तथा किंवदंतियों पर आधारित है।
एक common minimum programme संविद सरकार का बना- बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार माना गया- परशुराम, राम, बलराम तथा कृष्ण के बाद के क्रम में तथा #आज_भी_कोई_सनातनी_ब्राह्मण_भी_यदि_कोई_कथा_पुराण_सुनता_है_तो_कथा_प्रारंभ_करने_के_पूर्व तथा संकल्प लेते समय यह घोषणा करता है कि "बौद्धावतारे" अर्थात In the age of Buddha अर्थात We are living in the age of Buddha.
वह बुद्ध पूर्णिमा को गंगा स्नान करता है- जिस गंगा स्नान के मिथक को बुद्ध ने तोड़ा था।
यह परिवर्तन किसने किया- इस पर इतिहासवेत्ता बहस करें- किंतु अनंत श्री करपात्री जी महाराज कथा प्रभु दत्त ब्रहमचारी जी का निकट सानिध्य मुझे उपलब्ध हुआ- उसके आधार पर उस समय की बाल सुलभ बुद्धि से इसे मैं शंकराचार्य की देन मानता हूं। छिन्न-भिन्न भारतीय समाज को एक कड़ी के रुप में शंकराचार्य ने पिरोया, सबको साथ लेकर चले।
इसलिए जब मोदी ने भारत को गांधी तथा बुद्ध का देश घोषित किया तो देश में कहीं इसका विरोध नहीं दिखा क्योंकि पूर्व में ही परशुराम, राम, बलराम तथा कृष्ण को सेवानिवृत्त करके भारत को बुद्ध का देश शंकराचार्य घोषित करवा चुके थे- राम कथा कृष्ण के पूजन में भी पहले बुद्ध के वर्चस्व को स्वीकार करने की घोषणा की जाती है- "बुद्धावतारे"।
इसी तरह मोदी जब देश को गांधीमय तथा अंबेडकरमय करने लगे तो उनकी लोकप्रियता को कोई आघात न लगा- जैसे शंकराचार्य की प्रेरणा से परशुराम, राम, बलराम तथा कृष्ण को पृष्ठभूमि में करके बुद्ध को जनमानस ने अंगीकृत किया- उसी मानसिकता के उत्तराधिकारी भारतीयों ने सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर को पृष्ठभूमि में करके अंबेडकर के आगे मोदी के नेतृत्व में दंडवत करना श्रेयस्कर समझा-
"क्या बिगड़ जाता है, तुम्ही बड़े।"
परंतु बात पूरी नहीं बन पाई दो नए परिवर्तन आ गए थे-

(1)#इस्लाम_तथा_ईसाईयत_का_आविर्भाव_हो_चुका_था। मोदी के प्रेरणास्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने शंकराचार्य की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इनको भी सनातन परंपरा में समाहित करना चाहा किंतु बात नहीं बनी तो नहीं बनी।
" हिंदू ही यहां का राष्ट्र हो तथा अन्य परकीय हैं" की गर्जना जब डा हेडगेवार तथा गुरूजी गोलवलकर ने की, तो तुरंत उसको modify करते हुए अपनी मसीही हिंदू तथा मोहम्मदी हिंदू की धारणा को मूर्त स्वरूप दिया जैसे शैव, स्मार्त, मीमांसक, नैयायिक, वेदांती, जैन, बौद्ध आदि समस्त दर्शनों के अनुयायियों के कल्याण की कामना हरि से की जाने लगी उसी प्रकार इस सूची में मोहम्मदी हिंदू तथा मसीही हिंदू को भी पचाने की कोशिश की गई। यही संघ का भ्रमपूर्ण चिंतन था कदाचित कोई मसीही हिंदू हो सकता है किंतु मोहम्मदी हिंदू का एक ही अर्थ है- मुनाफिक जिसे काफ़िर से भी निकृष्ट माना गया है।
RSS के राष्ट्रवादी मुसलमान की परिभाषा पर टिप्पणी करते हुए सरदार विट्ठल भाई पटेल ने लिखा है-
"There is only one Nationalist Muslim in India and he is Pt. Jawahar Lal Nehru." अर्थात् भारत में केवल एक ही राष्ट्रवादी मुसलमान है और वह है पंडित जवाहरलाल नेहरू।
सरदार पटेल मुसलमानों को राष्ट्रद्रोही नहीं मानते थे किंतु जिस अर्थ में संघ किसी मुसलमान के राष्ट्रवादी होने का प्रमाण पत्र देता है, उस अर्थ को उन्होंने स्पष्ट किया।
इसी प्रकार गांधी जी द्वारा मुसलमानों को समझाने-बुझाने तथा संघ परिवार द्वारा उनको राष्ट्रवादी बनाने के लिए मोहम्मदी हिंदू बनाने के प्रयासों को निरर्थक घोषित करते हुए स्वामी श्रद्धानंद के शिष्य कुंवर सुखलाल ने गर्जना की-
जब तलक तालीम क़ुरआन
पे है इनका एतकाद
ये न समझेंगे मुसाफिर
आप समझाएंगे क्या?
अर्थात जब तक किसी मुसलमान का कुरान पर विश्वास है, तब तक कोई गांधी, हेडगवार या गोलवलकर उनको समझा नहीं पाएगा। कारण क्या है- "जहां महज शक करने से इंसा कुफ्र करता है।"
अर्थात कुरान में संशोधन नहीं हो सकता। एक संशोधित इस्लाम- इस्लाम नहीं है। कुरान की एक लाइन पर भी शक करते ही कोई मुसलमान नहीं रह जाता- वह मुनाफिक हो जाता है।
यहां उल्लेखनीय है कि हिंदुत्व तथा इस्लाम दोनों ही बौद्ध तथा ईसाई धर्म से बिल्कुल अलग है इसलिए इनमे घालमेल नहीं हो सकता। #ईसाईयत_की_कोई_भाषा_नहीं_है- अंग्रेजी का ईसाईयत से कोई लेना-देना नहीं। फ्रांस का ईसाई फ्रेंच में बाइबल पढ़ता है तथा जर्मनी का जर्मन में। ईसा मसीह अंग्रेजी का एक शब्द नहीं जानते थे। उत्तर प्रदेश का इसाई हिंदी में तथा केरल का ईसाई मलयालम में Bible पढ़े तो उसे उतना ही पुण्य मिलेगा। किंतु यज्ञोपवित या विवाह चाहे विश्व के किसी कोने में हो- #मंत्र_संस्कृत_में_ही_बोले_जाएंगे तथा वह भी एक विशेष उच्चारण के साथ- उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित का ध्यान रखते हुए। #नमाज_जहां_भी_अता_होगी_अरबी_में_ही_होगी उसका कोई local भाषा में translation, उसका substituteनहीं होगा। कुरान को हिफ़्ज़ करने वाला ही हाफिज होगा तथा इसका कोई विकल्प नहीं है।

(2) #दूसरा_परिवर्तनीय_यह_आया_कि_पिछड़ों_और_दलितों_में_नए_शक्ति_केंद्रों_का_उदय_हो_गया_था। यदि संघ ने यह अंबेडकर पूजा 1947 में प्रारंभ की होती तो सफलता मिल सकती थी क्योंकि उस समय यदि भारत अंबेडकरमय हुआ होता तो जैसे बुद्ध= incarnation of God Vishnu ( विष्णु का अवतार तथा बुद्ध= मूर्ख मान लिया गया उसी प्रकार Ambedkar= बोधिसत्व तथा Ambedkarite=?  मान लिया जाता क्योंकि अंबेडकर का समाज जागरूक नहीं हो पाया था। किंतु "अब पछताए होत क्या चिड़िया चुग गई खेत" 1947 में सवर्ण आगे थे, अंबेडकर का समाज इतने में ही धन्य हो जाता कि सारा सवर्ण तथा पिछड़ा उन्हें पूछ रहा है तथा वह अंबेडकर के मंदिरों को देखकर धन्य हो जाता। यही हाल सरदार पटेल जैसे कुछ लोगों को लौहपुरुष तथा और भी अधिक आवश्यक होने पर रजत पुरुष तथा स्वर्ण पुरुष बनाकर की जा सकती थी। पिछड़ा कभी लोहिया, चरण सिंह या वी.पी. सिंह के नेतृत्व में संघर्षरत था, जनेश्वर मिश्र "मिनी" लोहिया थे, मोहन सिंह जैसे लोग अग्रणी पर #लालू_तथा_मुलायम_के_मंच_पर_आने_के_बाद_स्थिति_बदल_गई। अब जनेश्वर मिश्र के वंशजों को पता है कि-
" वह दिन हवा हुए,
जब पसीना गुलाब था।
अब इतर भी मलिए
तो खुशबू नहीं आती।।"
 एक समय था जब जनेश्वर मिश्र के नेतृत्व में समाजवादी युवजन सभा के ब्राह्मण युवा, मंच पर चढ़कर डा लोहिया के आह्वान पर जनेऊ उतारकर तड़ाक से "#जाति_तोड़ो_जनेऊ_तोड़ो" अभियान में तोड़ते थे तो सारे अहीर तालियां बजा कर उन्हें 80% बनाम 20% की लड़ाई का योद्धा तथा अपना नायक मानते थे किंतु अब 80% बनाम 20% की लड़ाई खत्म हो चुकी है।
#अखिलेश_और_मायावती_भले_आपस_में_दोस्ती_कर_लें लेकिन अब यह दोस्ती स्वार्थों के लिए अफजल खां तथा शिवाजी की तरह बबुआ तथा बुआ का तालमेल होगा-हिरण्यकश्यप का स्टेट गेस्ट हाउस कांड स्वार्थों के चलते मायावती भुला सकती हूं कि उनका समाज उसकी याद करके सिहर उठता है। इस समझौते के होते ही #जिन_सीटों_पर_अखिलेश_नहीं_लड़ेंगे_वहां_शिवपाल_की_बिना_किसी_ठोस_प्रयास_के_दुकान_खुल_जाएगी तथा #जिन_इलाकों_से_हाथी_नहीं_होगी वहां जो पहले हाथी की लीद ढोते थे तथा अब बगावत के रास्ते पर हैं मौका पाकर हाथी के पीलवान हो जाएंगे तथा उसे अपने अंकुश के नीचे ले लेंगे। #लोहिया_चीखते_रहे_कि_उन्हें_शम्बूक_के_खून_का_राम_से_बदला_लेना_है किंतु शम्बूक के वंशज आत्मनिर्भर हो चुके हैं- #शम्बूक_की_बेटी_मायावती_अब_वशिष्ट_और_राम_के_वंशजों_को_अपने_चरणो_में_लिटा_चुकी_है। कितने भी जोर शोर से बसपाई ब्राह्मण परशुराम जयंती पर फरसा लहरालें किंतु TV पर उनका चेहरा देखते ही कनखियों में दलित मुस्कुरा देता है कि किस रूप में उसने मायावती के दरबार में उनको देखा है-

 "पितु समेत लै लै निज नामा।करन लगे सब दंड प्रणामा।।"

अब शंकराचार्य की भूमिका निभा रहा संघ जो भी समन्वय का फार्मूला रखेगा उसमें सवर्ण को सबसे निचले पायदान पर रहना होगा। आदि शंकराचार्य के फार्मूले में बुद्ध को सर्वोच्च स्थान दिया गया किंतु व्यवहार में सवर्ण शीर्ष पर रहा जिससे दोनों को स्वीकार्य हो गया। किंतु अब सवर्ण जो 1989 तक सत्ता के शीर्ष पर रहा है, एकबारगी अपनी सबसे निम्न स्थिति को स्वीकार नहीं करेगा। पिछड़ों और दलितों में जो शीर्ष पर पहुंचने से वंचित रह जाएगा- उसको साथ लेकर के वह लड़ाई छेड़ देगा तथा जैसे "हाथी नहीं गणेश है" के नारे के साथ यह माहौल ला दिया था कि कई यादव दरोगा अपनी नेम प्लेट बदलवा लिए थे तथा "यादव" शब्द हटवा दिए थे- उसी प्रकार आवश्यकतानुसार पुरानी मायावती- मायावती के किसी नए संस्करण को आगे करके  सारा मायाजाल ध्वस्त कर देगा।
"तप बल विप्र सदा बरियारा" #मात्र67विधायकों_वाली_मायावती_को213विधायकों_के_बूते_मिलने_वाली_सारी_की_सारी_मलाई_को_एकतरफा_चटवा_कर वह अपनी अद्भुत क्षमता प्रदर्शित कर चुका है।

संघ परिवार उसे धमकाएगा- किसी भीम सेना के समर्थकों की आवाज आएगी कि "हम मुसलमान हो जाएंगे।"
इस धमकी पर मैं आपको एक संस्मरण सुना रहा हूं जो कल्पित नहीं है। मैं अपने पूज्य स्वर्गीय पिता श्री की सौगंध खाकर कह रहा हूं कि यह संस्मरण सही है। मेरे पिताजी कौशांबी में सैनी college में Lecturer थे। एक मौर्य जी थे जिनका नाम ध्यान नहीं आ रहा है communist विचारधारा से प्रभावित थे तथा सैनी कॉलेज में एक टीचर श्री राजेंद्र मोहन वर्मा जी थे जो कट्टर communist थे तथा पिताश्री के सनातनी होने के बावजूद इन लोगों की अच्छी मित्रता थी तथा कभी चौराहे पर तथा कभी घर पर debate हो जाती थी। एक बार किसी बात पर बहस के दौरान मौर्य जी तैश में आकर कह बैठे- "#आप_लोगों_की_बनाई_जाति_व्यवस्था_से_त्रस्त_होकर_हम_लोग_मुसलमान_हो_जाएंगे तथा तब आपको पता लगेगा।" वहां चौराहे पर मौजूद कई मुसलमान बड़े प्रसन्न हो गए तथा कई RSS Minded हिंदू परेशान हो गए। पिताजी ने बड़े सौम्य भाव से उनको निरुत्तर कर दिया- कौन सा तीर मार लोगे? जब रोम में बहुजन इसाई हो गया तो उनका राजा भी इसाई धर्म स्वीकार कर लिया तथा उनका राजा बना रहा। क्या तुम मुसलमान बन कर हमारे मकड़जाल से निकल पाओगे? तुम और वर्मा जी दोनों रात भर यह सोचो कि अगर अल्पमत में आने पर हम मुसलमान हो गए तो क्या होगा? हम सैयद बनेंगे तथा तुम वहां भी कुँजड़ा रहोगे, सैयद तो होगे नहीं। जरा पता कर लो क्या कोई सैयद या खान साहब किसी कुँजड़े से कोई वैवाहिक रिश्ता बनाए हैं? यदि बनाए होंगे तो भी वह उतना ही rare होगा जितना हिंदुओं में। यहां हम पुड़ी सब्जी खाकर कथा सुनाते हैं वहां मुर्ग मुसल्लम खाकर कर्बला की कहानी सुनाएंगे। यहां तो आरक्षण की भी अवधारणा है, पाकिस्तान में वह भी नहीं है। हमने इतनी पीढ़ी तक वेद कंठस्थ किया है कुरान हिफ्ज करने में कोई आरक्षण नहीं रहेगा? #पाकिस्तान_में_कोई_तुम्हारे_समाज_का_आज_तक_उतनी_भी_महत्वपूर्ण_जगहों_पर_पहुंचा_है_जितना_भारतवर्ष_में?
जितने मुसलमान भी थे उन्होंने भी सहमति जताई तथा एक भठियारा समाज के उपस्थित व्यक्ति ने कटाक्ष करते हुए अल्लामा इकबाल की पंक्तियां उद्धत की-

शेख हो, सैय्यद हो, पठान हो तुम?
सच बताओ कि मुसलमान हो तुम?

आज के प्रसंग में पूज्य पिताश्री के वचनों का मूल्यांकन करते समय सोचता हूं कि सहारनपुर प्रसंग के बाद रामपुर कांड ने कुछ हद तक दलितों की आंखें खोल दी होंगी कि #आखिर_कुछ_तो_ऐसी_वजह_रही_होगी_कि_डा_अंबेडकर_बौद्ध_बने_थे_तथा_किसी_अन्य_धर्म_में_नहीं_गए_थे।
इन 2 कारणों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का Social Harmony का फार्मूला कारगर नहीं होगा तथा जिन चार जूतों को उग्र संगठन शक्ति के बल पर नहीं मार पाए उन चार जूतों को खाने के लिए संघ परिवार बहला-फुसलाकर सहर्ष तैयार कर ले- इसकी संभावना न के बराबर है। अतः सामाजिक संरचना को नए सिरे से परिभाषित कर आधुनिक शंकराचार्य की भूमिका में संघ की परिकल्पना शेखचिल्ली के मंसूबे बनकर बिखर जाएगी तथा "अमित शाह" का जुमला बनकर रह जाएगी।

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