क्या मोदी सरकार पिछली यूपीए सरकार की तुलना में मीडिया को अपने वश में ज्यादा कर रही हैं?
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यह गलत धारणा पेड मीडिया द्वारा ही फैलाई गयी है कि मोदी साहेब मीडिया को कंट्रोल कर रहे है । असल में मीडिया को कंट्रोल करना किसी भी सरकार के लिए मुमकिन नहीं है। चाहे सरकार कितनी भी ताकतवर क्यों न हो !!
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पिछले 200 वर्षो में दुनिया के किसी भी देश की कोई भी सरकार प्राइवेट मीडिया को नियंत्रित नहीं कर पायी है। सरकार के पास प्राइवेट मीडिया को कंट्रोल का एक मात्र तरीका यह है कि — वह देश के सारे प्राइवेट मीडिया को बंद कर दे, और सिर्फ सरकारी मीडिया को काम करने अनुमति दे।
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मीडिया पूरी तरह से धनिकों के नियंत्रण में ही रहता है। और धनिकों में भी यह उन धनिकों के नियंत्रण में रहता है जो हथियारों का निर्माण कर रहे है। भारत का मीडिया हथियार बनाने वाली अमेरिकी-ब्रिटिश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिको के पूर्ण नियंत्रण में है, और वे ही भारतीय मीडिया के प्रायोजक है। जो नेता पेड मीडिया के प्रायोजकों के एजेंडे को आगे बढ़ाने का काम करते है उन्हें पेड मीडिया में कवरेज दिया जाता है, वर्ना नहीं दिया जाता। किन्तु लोकतंत्र का लिहाज रखने के लिए नागरिको को यह बुत्ता दिया जाता है कि नेता कंट्रोल कर रहा है !!
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चुनाव जीतने एवं छवि बनाए रखने के लिए सभी नेता पेड मीडिया के प्रायोजको का समर्थन चाहते है, अत: वे पेड मीडिया के प्रायोजकों से संपर्क करके कहते है कि, आप एक बार हमें मौका दो, और हम आपके एजेंडे को बेहद तेजी से आगे बढ़ाएंगे। इस तरह सभी पार्टियों के सभी नेताओं में पेड मीडिया का सपोर्ट लेने के लिए एक प्रकार का कम्पीटीशन रहता है। क्योंकि पेड मीडिया के पास भारत का सबसे बड़ा वोट बैंक है !!
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[ इस जवाब के खंड (1) में मैंने तर्क एवं कुछ तथ्यों के आधार पर बताया है कि यूपीए सरकार के समय भी मीडिया सरकार के वश में नहीं था, और मोदी सरकार का भी पेड मीडिया पर शून्य ( मतलब जीरो = 0 ) नियंत्रण है !! खंड (2) बताता है कि कैसे पेड मीडिया के प्रायोजको के सहयोग से मनमोहन सिंह जी एवं मोदी साहेब अपने प्रतिद्वंदियों को पछाड़ कर शीर्ष स्तर तक पहुंचे। ]
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खंड (1)
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क्यों प्राइवेट मीडिया को कोई भी सरकार नियंत्रित नहीं कर सकती
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व्यवसायिक रूप से पेड मीडिया घाटे का धंधा है। जैसे जैसे मीडिया समूह विस्तार करता है, इसका घाटा भी बढ़ता जाता है। जितनी बड़ी मीडिया कम्पनी उतना ज्यादा घाटा। जितनी छोटी मीडिया कम्पनी उतना कम घाटा। अब आपको यह अजीब लगेगा कि ऐसा कैसे हो सकता है। लेकिन सच यही है कि मीडिया व्यवसायिक रूप से घाटे में ही चलता है।
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यदि आप सहज बोध (Common Sense) से इस दिशा में अवलोकन करना शुरू करेंगे तो इसे आसानी से समझ सकते है कि पेड मीडिया कैसे घाटे का धंधा है। और यदि आप इसे धरातल पर घटित होते देखना चाहते है तो, यह मानते हुए कि आपके पास 100 से 500 करोड़ की पूँजी है, एक मॉस मीडिया कम्पनी शुरु करने का प्रोजेक्ट बनाए और वास्तविक आंकड़ो की गणना करें कि एक राष्ट्रिय स्तर का अख़बार / चैनल शुरू करने के लिए आपको कितना पैसा लगेगा और इससे मासिक / सालाना कितनी कमाई होगी।
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यदि आप प्रोजेक्ट बनाने के लिए गंभीरत से प्रयास करते है तो 1-2 महीने में आपको आपकी ही प्रोजेक्ट रिपोर्ट यह बता देगी कि यह धंधा आपको किस दर से घाटा बनाकर देगा।
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उदाहरण के लिए इन्डियन एक्सप्रेस या टाइम्स ऑफ़ इण्डिया की एक प्रति छापने में सिर्फ कागज एवं प्रिंटिंग की लागत 16 से 20 रू आती है, लेकिन आपको हॉकर यह प्रति 3 रू में दे जाता है !! आप सोचते है कि, शेष पैसा विज्ञापनों से आता है। लेकिन जब आप विज्ञापनों का हिसाब लगायेंगे तो मालूम होगा कि विज्ञापनों से 25 से 30% के आस पास लागत ही वसूल होती है। तो बाकी पैसा वे कहाँ से ला रहे है ? ये पैसा मीडिया समूह 2 स्त्रोतों से लाते है :
वे अपने प्रायोजको से अनुदान लेते है
वे खबरे बेचते है
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ख़बरें बेचने से आशय है कि किसी अख़बार के फ्रंट पेज पर जितनी भी खबरें छपती है उन्हें छापने का पैसा लिया जाता है !! मतलब, यदि दैनिक भास्कर ने फ्रंट पेज पर खबर लगाई है कि “Yes bank डूब गया” तो इसे छापने का पैसा लिया जाता है !! यदि पैसा नहीं दिया गया तो वे इस खबर को इस तरह ड्राफ्ट करेंगे कि सरकार के वोट कट जायेंगे !! तो अख़बार में Yes bank के डूबने की खबर तो आएगी, लेकिन ड्राफ्टिंग कैसी होगी, इसके लिए पेमेंट करनी होती है !! और इसी तरह से वे पूरा अख़बार बेचते है !! प्रत्येक खबर के एवज में पैसे लिए जाते है। और ठीक इसी तरह से टीवी पर भी खबरें बिकती है।
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राजनैतिक खबरों को खरीदने वाले दो वर्ग है। एक वर्ग राजनैतिक पार्टियाँ, नेता, सरकार है, और दूसरा वर्ग वे धनिक है जिनके धंधे को राजनैतिक नीतियाँ प्रभावित करती है। जो ज्यादा बड़ी बोली लगाएगा खबर का प्लाट उसे बेच दिया जायेगा !!
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अब पेड मीडिया के प्रायोजको को तो चुनाव नहीं लड़ना है, अत: मीडिया में जितना भी पैसा वे फूंक रहे है वह उनका घाटा है। इस घाटे को वे कवर कैसे करते है ? वे मीडिया को कंट्रोल करके नेताओं को कंट्रोल करते है, और फिर नेताओं से गेजेट में ऐसी इबारतें छपवाते है, जिससे उन्हें फायदा हो। और इस अतिरिक्त मुनाफे से वे अपना घाटा पूरा कर लेते है। तो व्यावसायिक रूप से मीडिया घाटा बनाता है, लेकिन राजनैतिक लाभ लेकर इसे मुनाफे में बदल लिया जाता है।
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अब यहाँ इस बात को समझना जरुरी है कि एक भ्रष्ट नेता गेजेट में ऐसी इबारतें नहीं छाप सकता जिससे वह बड़े पैमाने पर "कानूनी रूप से" पैसा बना सके। इसके लिए उसे भ्रष्टाचार करना होगा और वह जांच / संदेह के दायरे में आ जाएगा। लेकिन धनिक वर्ग के पास ऐसा इन्फ्रास्त्रक्चर होता है कि वे गेजेट में छापी गयी इबारतो से अरबों रूपये का अतिरिक्त मुनाफा बना सकते है। और यह मुनाफा पूरी तरह से कानूनी होगा, गैर कानूनी नहीं।
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सामंजस्य : यदि सत्ताधारी पार्टी पेड मीडिया के प्रायोजको के हितो में नीतियाँ बनाती है तो सरकार एवं पेड मीडिया के प्रायोजको के आपसी सम्बन्ध मधुर बने रहेंगे, और नेता को सकारत्मक कवरेज मिलेगा।
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टकराव : और यदि सरकार पेड मीडिया के प्रायोजको के हितो के खिलाफ नीतियाँ बनाती है तो टकराव शुरू होगा। जब टकराव आएगा तो सरकार मीडिया को अपने फेवर में लेने की कोशिश शुरू करेगी। और फिर पेड मीडिया कर्मियों को कंट्रोल करने के सरकार के पास 2 रास्ते है :
पैसे से खरीदना
पेड मीडियाकर्मियों को दबाव में लेना
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पैसे से खरीदना : सरकार भ्रष्टाचार करके कितना भी पैसा बना ले किन्तु वे पेड मीडिया का घाटा पूरा नहीं कर सकते। भारत की बात करें तो लगभग 25 न्यूज चेनल एवं 50 बड़े अख़बार है जो प्रतिदिन खबरों के नाम पर अफीम बाँटते है। इसके अलावा फेसबुक, व्हाट्स एप आदि जैसी कम्पनियों का घाटा भी पूरा करना होता है।
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सरकार इतने बड़े स्ट्रक्चर का घाटा पूरा नहीं कर सकती। पेड मीडिया के प्रायोजक यह घाटा इसीलिए पूरा कर सकते है, क्योंकि उनके पास पैसे की बारिश करने वाले कारखाने है, और वे सालो साल से इन मीडिया समूहों का घाटा पूरा कर रहे है। मतलब अब यह बोली लगाने वाला मामला है। धनिक वर्ग सरकार से ज्यादा बोली लगाएगा और मीडियाकर्मी धनिक वर्ग की तरफ चला जायेगा।
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मीडियाकर्मियों को दबाव में लेना : यदि सरकार पेड मीडियाकर्मियों को खरीद नहीं पा रही है तब वे मीडिया को दबाना शुरू करेंगे। किन्तु पेड मीडिया के प्रायोजको के खिलाफ जाकर मुख्य धारा के किसी मीडिया हाउस को दबाना भी मुमकिन नहीं है। क्योंकि पेड मीडिया के प्रायोजको के पास हथियार है !!
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पेड मीडिया के प्रायोजक अमेरिकन-ब्रिटिश-फ्रेंच बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिक है। ये कम्पनियां फाइटर प्लेन, लेसर गाईडेड बम, लेसर गाइडेड मिसाईले, ड्रोन जैसी चीजे बनाती है। इन हथियारों पर नियंत्रण होने के कारण उनके पास वास्तविक ताकत है। अत: पीएम इन कम्पनियों को दबाने का प्रयास करेगा तो ये कम्पनियां उसे युद्ध में खींचेगी।
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तो जब तक सरकार या पीएम के पास हथियार निर्माताओं से टक्कर लेने वाले हथियार ना हो तब तक पीएम सरकारी मीडिया को भी नियंत्रित नहीं कर सकता।
और प्राइवेट मीडिया को तो हथियार होने के बावजूद भी नियंत्रित नहीं किया जा सकता। क्योंकि प्राइवेट मीडिया का घाटा पूरा करने के लिए लगातार पैसा चाहिए होता है, जो कि सरकार के पास नहीं होता।
यदि सरकार प्राइवेट मीडिया को कंट्रोल करने की कोशिश करेगी तो उसे इसका अधिग्रहण ही करना पड़ेगा। और जैसे ही सरकार प्राइवेट मीडिया का अधिग्रहण करेगी यह सरकारी मीडिया हो जाएगा। और इस तरह पीएम को मीडिया पर कंट्रोल लेने के लिए सभी प्राइवेट मीडिया हाउस का अधिग्रहण करना पड़ेगा।
यदि पीएम देश के सभी प्राइवेट मीडिया हाउस का अधिग्रहण कर लेगा तो फ्रीडम ऑफ़ एक्प्रेशन का निलम्बन हो जाएगा और डेमोक्रेसी ख़त्म हो जायेगी !!
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दुसरे शब्दों में प्राइवेट मीडिया पर सरकार का नियंत्रण और डेमोक्रेसी साथ साथ एग्जिस्ट नहीं करती !! ये दोनों चीजे साथ साथ होती ही नहीं है। यदि किसी देश में प्राइवेट मीडिया है तो इसे हमेशा धनिक वर्ग ( हथियार निर्माता ) ही नियंत्रित करेगा, चाहे सरकार कितनी भी ताकतवर क्यों न हो।
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इसे फिर से पढ़िए - प्राइवेट मीडिया पर सरकारी नियंत्रण और डेमोक्रेसी साथ साथ एग्जिस्ट नहीं कर सकती है !!
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कुछ वास्तविक उदाहरण देखिये ;
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(a) स्टालिन : जोसेफ स्टालिन (1922–1953) ने बड़े पैमाने पर हथियारों का उत्पादन करना शुरू किया था, और उसने अमेरिकी-ब्रिटिश कम्पनियों को सोवियत रूस में आने की अनुमति नहीं दी। यदि स्टालिन प्राइवेट मीडिया को अनुमति दे देते तो अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक किसी न किसी तरीके से स्टालिन को चित कर देते। अत: स्टालिन ने मीडिया का 100% अधिग्रहण कर लिया और सोवियत रूस में डेमोक्रेसी ख़त्म हो गयी। आज रूस के पास अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के बराबर ताकतवर हथियार है, किन्तु मीडिया आज भी 100% रूसी सरकार के कंट्रोल में है। प्राइवेट मीडिया को वहां काम करने की अनुमति नहीं है। यदि रूस प्राइवेट मीडिया को आज भी अनुमति दे देता है, तो अगले 20-25 साल में अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक रूस के फिर से 8 से 10 टुकड़े कर देंगे।
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वजह यह है कि, रूस के पास जूरी सिस्टम नहीं है। और जूरी सिस्टम न होने के कारण उनके पास हथियार निर्माण करने वाली निजी कम्पनियां नहीं है। रूस के सभी निर्णायक हथियार सरकारी कम्पनियां बनाती है। तो यदि रूस में प्राइवेट मीडिया खोल दिया जाता है, तो अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक निजी मीडिया को वहां पर सरकारी मीडिया से भी ज्यादा शक्तिशाली बना देंगे। सरकारी मीडिया इतना घाटा नहीं उठा सकेगा, और निजी मीडिया की तुलना में पिछड़ जायेगा।
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और एक बार यदि प्राइवेट मीडिया सरकारी मीडिया से ज्यादा ताकतवर हो गया तो पेड मीडिया का इस्तेमाल करके रूस के 5-7 टुकड़े करना मामूली बात है। तब रूस के राष्ट्रपति को देश बचाने के लिए फिर से प्राइवेट मीडिया का अधिग्रहण करना पड़ेगा !! तो स्टालिन को हथियार भी बनाने थे, और जूरी सिस्टम भी नहीं लाना था। तो फिर एक ही रास्ता बचता है – पेड मीडिया का अधिग्रहण किया जाए।
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(b) चेयरमेन माओ : माओ जिडोंग के साथ भी यही मामला था। उसे भी हथियार बनाने थे और जूरी सिस्टम भी नहीं लाना था। तो उसको भी सबसे पहले मीडिया का अधिग्रहण करना पड़ा। और फिर उसने सरकारी हथियार बनाने शुरू किये। यदि माओ अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों को मीडिया चेनल खोलने देता तो वे अगले 5 वर्ष में ही चीन को आधा दर्जन टुकड़ो में विभाजित करके माओ को निपटा देते।
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चीन आज अपनी सेना काफी मजबूत कर चुका है, लेकिन आज भी यदि चीन प्राइवेट चेनल को अनुमति दे दे तो अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक बिना कोई युद्ध लड़े अगले 20 साल में चीन को के राजनेताओ पर कंट्रोल ले लेंगे। और पूरा मीडिया खोलने की भी जरूरत नहीं है। सिर्फ फेसबुक और गूगल को आने दो तो ये दो कम्पनियां भी चीन को काबू करने के लिए काफी है। चीन मीडिया में विदेशी निवेश खोल नहीं रहा है, और इस वजह से चीन को अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के साथ युद्ध लड़ना पड़ेगा।
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(c) हिटलर एवं मुसोलिनी : इन्होने भी वही ट्रेक लिया। मीडिया पर हिटलर का 100% कंट्रोल था। कोई प्राइवेट मीडिया नहीं। हिटलर बड़े पैमाने पर सरकारी हथियारों का निर्माण कर रहा था, अत: मीडिया पर कंट्रोल लेना जरुरी था। हिटलर मीडिया को छोड़ देता तो सेना नहीं खड़ी कर पाता।
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(d) ईराक-ईरान : सद्दाम हुसैन ने अमेरिकी-ब्रिटिश कम्पनियों को मीडिया चेनल नहीं खोलने दिए, अत: उसे अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के साथ युद्ध में जाना पड़ा। यदि ईराक प्राइवेट मीडिया आने देता तो अमेरिकी-ब्रिटिश शांतिपूर्ण तरीके से सद्दाम को हटाकर मिनरल्स टेकओवर कर लेते, और ईराक युद्ध से बच जाता।
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अभी ईरान भी इसी रास्ते पर है। ईरान में मीडिया पर काफी सेंसरशिप है। ईरान में वोटिंग होती है, लेकिन मीडिया पर 100% सरकारी नियंत्रण है। अभी ईरान यदि मीडिया में विदेशी निवेश खोल देता है तो अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक 5-7 साल में नागरिको को भेड़ा बनाकर ऐसे नेताओं को शीर्ष पर पहुंचा देंगे जो ईरान के मिनरल्स अमेरिकी कम्पनियों को देना शुरू करें। मतलब, ईरान में शिया-सुन्नी में घर्षण बढ़ जाएगा और अमेरिकी-ब्रिटिश कम्पनियां वहां पर “विकास” करने लगेगी। और विकास का सामान (यानी मिनरल्स) ख़त्म होने तक ईरानियो को मालूम ही नहीं चलेगा कि विकास किसका हो रहा था !!
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दुसरे शब्दों में, ईरान प्राइवेट मीडिया को अनुमति देने से इंकार करके ईरान के विकास में बाधा डाल रहा है, अत: अब अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों को न चाहते हुए भी पहले ईरान से युद्ध करना पड़ेगा और तब वे वहां पर विकास कर पायेंगे। क्योंकि अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक असली "विकास पुरुष" है। उन्होंने पूरी दुनिया के उन देशो में विकास करने का संकल्प लिया हुआ है, जो हथियार भी नहीं बनाते है, और उनके पास मिनरल्स भी है !! रूस के पास भी काफी मिनरल्स है, किन्तु चूंकि रूस अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों को टक्कर देने वाले हथियार बना चुका है, अत: अमेरिकी-ब्रिटिश-फ्रेंच धनिक वहां विकास करने नहीं जाते।
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(e) इंदिरा गाँधी जी : इंदिरा जी ने भी हथियार बनाने शुरू किये तो पहले उन्होंने दूरदर्शन के माध्यम से कम्पीट करने की कोशिश की। पर अंत में उन्हें आपातकाल लगाकर मीडिया पर प्रतिबन्ध लगाने पड़े। वे भारत की अब तक की सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री थी, लेकिन प्राइवेट मीडिया को वे भी नियंत्रित नहीं कर पायी थी।
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(f) अमेरिका : अमेरिका के पास आज दुनिया की सबसे शक्तिशाली सेना है, और इसके बावजूद अमेरिका के मीडिया पर वहां के हथियार निर्माताओ का ही नियंत्रण है, राष्ट्रपति का नहीं। पर चूंकि अमेरिका का मीडिया अमेरिकी धनिकों के ही नियंत्रण में है विदेशियों के नहीं, और अमेरिकी नागरिको के पास जूरी सिस्टम-राईट टू रिकॉल-जनमत संग्रह-मल्टी इलेक्शन एवं बंदूक रखने की आजादी है अत: वहां का प्राइवेट मीडिया अमेरिकी हितो का नुकसान नहीं पहुंचाता।
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ऊपर दिए गए सभी ताकतवर लोगो ने हथियार बनाने के बड़े पैमाने पर प्रयास किये और इन सभी को प्राइवेट मीडिया को प्रतिबंधित करना पड़ा। क्योंकि यदि ये लोग पेड मीडिया को काम करने की अनुमति दे देते तो अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक इन्हें गिराने में कामयाब हो जाते।
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मेरा बिंदु यह है कि असल में दुनिया की कोई भी सरकार आज तक प्राइवेट मीडिया को कंट्रोल नहीं कर पायी है। यदि सरकार के पास हथियार है तब भी सिर्फ सरकारी मीडिया नियंत्रित किया जा सकता है, प्राइवेट मीडिया को नहीं। प्राइवेट मीडिया से तालमेल बनाने का सिर्फ एक ही तरीका है – चुपचाप पेड मीडिया के प्रायोजको के एजेंडे को आगे बढ़ाने वाले क़ानून गेजेट में छापते रहो, और बदले में पेड मीडियाकर्मी नेताजी को जनता के सामने सुपरमेन बना कर दिखाते रहेंगे।
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अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों का सिंगल पॉइंटेड एजेंडा यह है कि कोई देश आधुनिक एवं निर्णायक हथियार नहीं बनाएगा !! और यह एजेंडा कोई छुपा हुआ नहीं है। एकदम खुली हुई बात है।
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ऊपर दिए गए लोगो ने हथियार बनाने शुरू किये और और इसीलिए अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के साथ इनका घर्षण बढ़ गया था। और इन लोगो को मीडिया पर प्रतिबन्ध लगाने पड़े।
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तो मनमोहन सिंह जी एवं मोदी साहेब का मीडिया पर कितना वश है ?
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शून्य !! जीरो !! अंडा !! मतलब = 0 !!
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सबूत ?
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पहली बात तो यह कि हम हथियार नहीं बनाते। असल में हम अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के हथियारों पर ही अपनी सेना चला रहे है। तो उनसे टक्कर लेने का सवाल ही नहीं। और जहाँ तक पैसे से खरीदने की बात है, न तो बीजेपी के पास उतना पैसा है और न ही कोंग्रेस के पास कि वे मीडिया खरीद सके। ये खुद ही विदेशियों के चंदे पर चल रहे है, मीडिया का घाटा किधर से पूरा करेंगे। अभी बीजेपी=संघ को विदेशियों से 950 करोड़ एवं कोंग्रेस को 150 करोड़ बेनामी इलेक्टोरल बांड से मिले है। इसी पैसे से इनकी आई टी सेल वगेरह के कर्मचारियों को वेतन आदि दिए जाते है, और इनके कट आउट, झंडी बैनर आदि छपते है।
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यदि संघ=बीजेपी मीडिया का घाटा पूरा कर सकती थी, तो वो पिछले 70 साल में अपना खुद का मीडिया हाउस स्थापित कर लेती थी। उन्होंने कोशिश भी की पर खड़ा नहीं कर पाए। पांचजन्य उन्होंने 1948 में और पाथेय कण 1987 में शुरू किया था। सरकार बना ली लेकिन अपना मीडिया खड़ा नहीं कर पाए !! और इसीलिए चुनाव जीतने के लिए उन्हें पेड मीडिया की जरूरत होती है।
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पाथेय कण - राष्ट्रीय विचारों का सजग प्रहरी
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पाञ्चजन्य - राष्ट्रीय हिंदी साप्ताहिक पत्रिका | Panchjanya - National Hindi weekly magazine
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जवाहर लाल ने भी 1938 में नेशनल हेरल्ड नाम से पेपर शुरू किया था। यह लगातार वित्तीय संकट से जूझता रहा। अंत में अपडेटेड प्रिंटिंग मशीनों के अभाव में घाटा खाकर बंद हो गया !! एक समय पूरा देश ही कोंग्रेस को वोट करता था, लेकिन पेपर उनसे भी नहीं चला !! मलतब, सरकार बनाना आसान है, लेकिन मीडिया हाउस खड़ा करना और उसे चलाते रहना और उसे कंट्रोल करना उससे भी बड़ा काम है। जब तक आप हथियार बनाने की फैक्ट्रियां नहीं चला रहे हो तब तक आप प्राइवेट मीडिया को कंट्रोल नहीं कर सकते !! अभी 2017 में इन्होने नेशनल हेरल्ड का डिजिटल वर्जन ( यानी मुफ्त का मीडिया ) निकालना शुरू किया है।
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National Herald: Live News Today, India News, Top Headlines, Political and World News
The paper had failed to modernise its print technology and had not computerised at the time of suspending operations and had been making losses for several years owing to lack of advertising revenues and overstaffing.
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शिवसेना के पेपर “सामना” की भी यही दशा है। इसे 1988 में बाला साहेब ने शुरू किया था !! ये भी हमेशा हाशिये पर ही रहा, मुख्य धारा में नहीं आ पाया।
Saamana (सामना) | Latest Marathi News | Live Maharashtra, Mumbai, Pune, Nashik News | Marathi Newspaper | ताज्या मराठी बातम्या लाइव
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ये सब तो सामने के प्रयास है। इसके अलावा परदे के पीछे से भी एंट्री मारने के काफी प्रयास इन्होने किये। असल में कोंग्रेस, संघ=बीजेपी, शिवसेना आदि हथियार बनाने की फैक्ट्रियां नहीं चलाते है, इसीलिए मीडिया खड़ा नहीं पर पाए। मीडिया पर कंट्रोल लेने की पहली शर्त यह है कि आपके पास हथियार बनाने के कारखानो पर नियंत्रण होना चाहिए। क्योंकि सिर्फ पैसे से मीडिया पर कंट्रोल आता था तो साबुन और शेम्पू बनाकर पैसा कमाने वाले (अम्बानी-टाटा) लोग भी मीडिया कम्पनियां खोल लेते थे।
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सार की बात यह है कि राजनीति को पूरी तरह से पेड मीडिया के प्रायोजक (हथियार निर्माता) कंट्रोल करते है, और उनका सहयोग लिये बिना आप सरकार में शीर्ष स्तर पर नहीं आ सकते। और यदि आप पेड मीडिया के प्रायोजको का सहयोग लेकर सत्ता में आयेंगे तो आपको उनके एजेंडे पर ही काम करना पड़ेगा।
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और उनका एकनिष्ठ एजेंडा यह है कि — आप हथियार नहीं बनाओगे बल्कि अमेरिकी-ब्रिटिश-फ्रेंच कम्पनियों के हथियार ही खरीदोगे, ताकि वे आपकी सेना को नियंत्रित कर सके !!
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आप उनके एजेंडे से एक इंच भी इधर उधर हुए तो वे आपका प्लग निकाल देंगे, और पेड मीडिया की सहायता से नया नेता इंस्टाल कर देंगे।
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खंड (2)
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मनमोहन सिंह जी एवं मोदी साहेब का पेड मीडिया से तालमेल
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(1) मनमोहन सिंह जी : मनमोहन सिंह जी वित्त विभाग में बाबू थे, और राजनीति से उनका कोई लेना देना नहीं था। आई एम् ऍफ़ में नौकरी करने के दौरान उन्होंने अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों को एप्रोच किया। चुनाव हुए और कोंग्रेस सत्ता में आयी। मनमोहन सिंह जी ने कोंग्रेस जॉइन की और उन्हें सीधे वित्त मंत्री बना दिया गया। (यदि कोंग्रेस सरकार नहीं बना पाती तो मनमोहन सिंह जी उस पार्टी को जॉइन करते जो पार्टी सरकार बनाती थी !!)
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और मनमोहन सिंह जी ने अपने पहले ही बजट में WTO साइन करके अमेरिकी-ब्रिटिश कम्पनियों के लिए देश खोल दिया। पेड मीडिया के प्रायोजक 1991 में भारत में इतने मजबूत थे कि उन्होंने एक बाबू को देश का वित्त मंत्री बना दिया था !! सीधे पैराशूट लेंडिंग !!
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वाजपेयी ने अपने पहले कार्यकाल में परमाणु परिक्षण कर दिया जिससे पेड मीडिया के प्रायोजक नाराज हो गए। उन्होंने अपने पुराने अय्यार SS को एप्रोच किया। SS ने तमिलनाडु के हाईकोर्ट जज के हवाले से जयललिता को धमकाया और जयललिता सरकार गिराने को राजी हो गयी । इस तरह SS ने सोनिया+जयललिता के बीच समझौता करवाकर वाजपेयी सरकार गिरायी।
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Swamy's reception will bring Sonia and Jaya together
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How Vajpayee Government Was Defeated By A Single Vote In 1999
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लेकिन नए चुनावों में वाजपेयी फिर से जीत कर आ गए और उन्होंने सरकार बना ली। तब अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों ने पाकिस्तान को हथियार भेजकर कारगिल पर चढ़ाई करने को कहा, और भारत के हथियारों की सप्लाई लाइन काट दी। इस तरह उन्होंने हथियारों के बल पर वाजपेयी को काबू किया !!
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2004 में उन्होंने मनमोहन सिंह जी को पीएम बनाया, और उन्होंने फिर से पेड मीडिया के प्रायोजको के एजेंडे को गति देना शुरू किया। UPA-1 के दौरान अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक चुनाव प्रणाली में evm इंस्टाल कर चुके थे। 2009 के चुनावी नतीजो को evm द्वारा मेनिपुलेट किया गया था। बीजेपी=संघ ने फिर से चुनाव कराने की मांग को लेकर आन्दोलन चलाया, किन्तु पेड मीडिया के प्रायोजको द्वारा धमकाने पर वे पीछे हट गए। इस तरह UPA-2 सरकार evm की देन थी।
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बाद में, 2010 में सुप्रीम कोर्ट में यह साबित हुआ कि 2009 के चुनावों में जिन evm का इस्तेमाल किया गया था उनमें वोटो की हेरा फेरी की जा सकती थी। चुनाव आयोग ने तब पुरानी सारी evm केंसिल की और नए डिजाइन का evm लांच किया। vvpat वाले वर्जन इसीलिए लाये गए थे। लेकिन चुनाव आयोग जो नया डिजाइन लाया है, वह पुरानी evm का भी बाप है। मतलब नए डिजाइन में और भी ज्यादा आसानी से बड़े पैमाने पर वोटो को बदला जा सकता है।
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10 साल तक मनमोहन सिंह जी की छवि को सूतने के बाद उन्होंने डॉक्टर साब को रिटायर कर दिया।
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(2) श्री नरेंद्र मोदी : इंदिरा गाँधी Vs अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक संघर्ष के दौरान संघ के नेता अपने राजनैतिक हितो के लिए स्वाभाविक रूप से अमेरिकी-ब्रिटिश धनिको के पाले में चले गए थे। 1990 आते आते अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक कोंग्रेस को टेक ओवर कर चुके थे और सोवियत के टूटने के बाद भारत में आंतरिक राजनीति का एक मात्र ध्रुव अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक रह गए। मतलब, एंटी अमेरिकी नेताओं का कोई धनी नहीं बचा था।
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WTO समझौता होने के कारण भारत ऑफिशियली अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के लिए खुल चुका था, अत: बीजेपी=संघ के नेताओं ने अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों को जॉइन कर लिया, और उनके सहयोग से सत्ता में आने के प्रयास करने शुरू किये। अब उनके पास कोई चारा भी नहीं था। क्योंकि यदि संघ=बीजेपी अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के खेमे में नहीं चले जाते तो अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक दूसरा ध्रुव बनाने के लिए किसी अन्य पार्टी को खड़ा करते। क्योंकि राजनीति में टोटल कंट्रोल तभी मिलता है, जब आप पक्ष एवं विपक्ष दोनों को फंडिंग करते हो।
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तो संघ=बीजेपी के नेताओं में अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों से गठजोड़ बनाने का कम्पीटीशन शुरू हुआ, और इस मामले में मोदी साहेब ने रफ्ता रफ्ता अपने सभी प्रतिद्वंदियों को पीछे छोड़ दिया !!
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(2.1.) मोदी साहेब ने पहली छलांग 1993 में लगायी जब वे IVLP की सीट लेने में कामयाब रहे। IVLP (International Visitor Leadership Program ) अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ़ स्टेट द्वारा चलाया जाने वाला एक ट्रेनिंग कोर्स है। यह काफी हाई प्रोफाइल प्रोग्राम है। इसके लिए प्रतिभागियों का चयन अमेरिका द्वारा ही किया जाता है, आप इसमें आगे होकर आवेदन नहीं कर सकते। अमेरिका ने संघ को एक बंदा भेजने को कहा और मोदी साहेब ने यह सीट ले ली। मोदी साहेब को इस डिपार्टमेंट ने दो बार ट्रेनिंग दी है। 1993 में एवं 1999 में।
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2014 से पहले इसे तथ्य को पेड मीडिया में कभी रिपोर्ट नहीं किया गया था। अमूमन मुख्यमंत्री जैसे पद पर जाने के बाद व्यक्ति से जुडी इस तरह की घटनाएं सार्वजनिक हो ही जाती है, किन्तु 2013 तक भी इस घटना को कभी भी किसी मुख्य धारा के मीडिया समूह ने रिपोर्ट नहीं किया। 2014 तक सोशल मीडिया काफी ताकतवर हो चुका था, और कई एकाउंट से मोदी साहेब की अमेरिका विजिट की तस्वीरें सामने आने लगी। तब इस घटना को मीडिया में रिपोर्ट किया गया, लेकिन ट्रेनिग प्रोग्राम की बात फिर भी छिपा ली गयी।
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2014 में लिखे गए पेड फर्स्ट पोस्ट का यह आर्टिकल पढ़िए। यह आर्टिकल कहता है कि मोदी साहेब अमेरिका में संघ के प्रचारक के रूप में गए थे !! इस बात को बेहद सफाई से छिपा लिया गया है कि मोदी साहेब अमेरिका में संघ के प्रचारक के रूप में नहीं गए थे, बल्कि अमेरिका के सरकारी लीडरशिप प्रोग्राम के ऑफिशियली ट्रेनी थे।
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Summer of '93: Check out young Narendra Modi hanging out in US - Firstpost
New York was like a "second-home" for Narendra Modi "who stayed for weeks at a time in the US as a party apparatchik tasked with spreading the gospel of the sangh parivar in America.न्यूयॉर्क "नरेंद्र मोदी के लिए एक दूसरे घर" जैसा था, और अमेरिका में किसी समय वे संघ परिवार का प्रचार करने के उद्देश्य से हफ्तों तक रहे थे !!
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अब 2017 में अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ़ स्टेट के अधिकृत फेसबुक पेज पर किया गया यह पोस्ट देखिये, जिसमें यह तथ्य दर्ज है कि मोदी साहेब की अमेरिकी विजिट इस प्रोग्राम का हिस्सा थी।
Exchange Programs - U.S. Department of State
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[ यहाँ मेरा आशय यह नहीं है कि अमेरिकियों ने मोदी साहेब को ट्रेनिंग दी है अत: अमेरिकी-ब्रिटिश धनिको के एजेंट है। दरअसल, नेता आगे बढ़ने के लिए मौका देखकर सभी विकल्पों का इस्तेमाल करते है, और इसमें कोई गलत बात भी नहीं है। उदाहरण के लिए 1998 में संघ=बीजेपी ने सत्ता में आने के लिए अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों का सहयोग लिया था लेकिन सरकार बनाने के बाद वाजपेयी ने परमाणु परिक्षण किया। लेकिन इस बिंदु का इसलिए महत्त्व है कि यहाँ से मोदी साहेब के लिए उन ताकतवर लोगो का सहयोग मिलने का रास्ता खुल गया था, जो भारत एवं वैश्विक राजनीती को नियंत्रित करते है। ]
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(2.2.) दूसरा मौका उन्हें कारगिल युद्ध के दौरान मिला। कारगिल में हमें लेसर गाइडेड बम चाहिए थे, और इस विजिट को सीक्रेट रखा जाना था। कारगिल युद्ध के दौरान मोदी साहेब जाकर आईएम्ऍफ़ एवं विश्व बैंक के अधिकारियों से यह सहमती बनाने के लिए मिले कि यदि अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक भारत को हथियारों की मदद देते है, और पाकिस्तान को हथियारों की मदद रोक देते है तो भारत अपनी अर्थव्यवस्था के कौन कौन से क्षेत्र खोल देगा।
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उनकी पहली मांग मीडिया में विदेशी निवेश की अनुमती थी, ताकि अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक भारत में अपने चैनल खोल सके। 2002 में भारत ने मीडिया अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के लिए खोल दिया। इसके अलावा भी ढेर सारी शर्तें थी।
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कारगिल युद्ध के दौरान मोदी साहेब के बारे में इस लिंक में पढ़ सकते है। किन्तु पेड टेलीग्राफ ने लेसर गाइडेड बम को स्टोरी में से गायब कर दिया है !! कारगिल के लेसर गाईडेड बम के बारे में अलग से गूगल करेंगे तो आपको जानकारी मिल जायेगी।
Hunt for Modi clues in 1999 trip
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(2.3) मुख्यमंत्री पद पर मोदी साहेब की पैराशूट लेंडिंग :
मुख्यमंत्री / प्रधानमंत्री बनने के 2 रूट होते है
चुनाव जीत कर आना, या
पैराशूट लेंडिंग
गुजरात में तब मोदी साहेब मझौले दर्जे के नेता थे, और मुख्यमंत्री होने के हिसाब से उनका कद काफी छोटा था। चुनावी राजनीती के माध्यम से अभी उनको काफी साल और लगने वाले थे। अत: उन्होंने मनमोहन सिंह जी तरह मुख्यमंत्री पद पर पैराशूट लेंडिंग की दिशा में तैयारी शुरू की। केशुभाई पटेल के झमेले के कारण उन्हें गुजरात से निष्कासित करके दिल्ली भेज दिया गया था, और गुजरात इकाई उन्हें गुजरात से दूर ही रखना चाहती थी।
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अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक पहले ही “कह” चुके थे कि मोदी साहेब में नेतृत्व के गुण है, अत: सीधे मुख्यमंत्री बनने की उनकी संभावनाएं बढ़ गयी थी !! और मोदी साहेब ने अपने 13 वर्षीय कार्यकाल में ऐसा कोई कानून नहीं छापा जिससे अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के एजेंडे को नुकसान हो। इस तरह मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी साहेब पेड मीडिया के प्रायोजको की गुड बुक में आये।
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पेड मीडिया के प्रायोजको का एजेंडा जिन्हें मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी साहेब ने आगे बढ़ाया :
मोदी साहेब ने मुख्यमंत्री रहते हुए मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का कोई क़ानून नहीं छापा, बल्कि और भी नए मंदिरों का अधिग्रहण किया -- Govt in overdrive to take over temples
देशी गाय की नस्ल बचाने और गौ कशी रोकने के लिए कोई क़ानून नहीं छापा।
पुलिस एवं अदालतों को ठीक करने के लिए कोई क़ानून नहीं छापा।
मोदी साहेब ने गुजरात में गणित-विज्ञान का स्तर सुधारने के लिए भी कोई क़ानून नहीं छापा।
उन्होंने गुजरात में अमेरिकी-ब्रिटिश कंपनियों के लिए काफी क्षेत्र खोले
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(2.4) प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी : 2012 में मोदी साहेब की अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के साथ नेगोशिएशन शुरू हुयी थी। अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों का अगला टारगेट ईरान था, अत: उन्हें ऐसा नेता को आगे लाना था, जो भारत में हिन्दू-मुस्लिम अलगाव की हिंसक जमीन तैयार करें।
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तो उन्होंने पेड मीडिया का इस्तेमाल करके उनकी मुस्लिम विरोधी छवि को खड़ा करना शुरू किया। मोदी साहेब को मुस्लिम विरोधी “दिखाने” का काम करने के लिए तब पेड रविश कुमार, पेड करण थापर एवं पेड राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकारो को पेमेंट की जा रही थी। ओवेसी बंधुओ की हेट स्पीच एवं मंच सजाकर टीवी कैमरों के सामने जालीदार टोपी न पहनने के ड्रामे वगेरह इसी स्क्रिप्ट के हिस्सा थे।
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पेड मीडिया ने नकारत्मक रिपोर्टिंग करके मोदी साहेब की “मुस्लिम विरोधी” छवि को निखारा ताकि हिन्दू वोटर को मोदी साहेब की तरफ भेजा जा सके। 2014 में मोदी साहेब स्पष्ट बहुमत लेकर सत्ता में आये, और 5 वर्ष तक तक मोदी साहेब ने अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के एजेंडे को आगे बढ़ाया।
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अपने पहले कार्यकाल में मोदी साहेब ने जिस तरह के फैसले किये थे उससे उनकी लोकप्रियता में गिरावट आई थी, और साफ़ नजर आ रहा था कि उनकी सीटे घटेगी। किन्तु चुनावों से एन पहले यानी 2018 में केंचुआ ने चुपचाप vvpat के पारदर्शी कांच को मिरर ग्लास से बदल दिया। अत: इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि 2019 के चुनावों में उन्हें 30 से 40 सीटो का नुकसान हुआ होगा, किन्तु इसे evm द्वारा मैनेज किया गया !!
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मेरा अनुमान है कि, मोदी साहेब को 2024 में मनमोहन सिंह जी की तरह रिटायर कर दिया जाएगा। उनके नए खिलाडी श्री अमित शाह, श्री योगी जी एवं केजरीवाल है। यदि ईरान अमेरिका के एजेंडे में आता है तो अमित शाह पीएम होंगे। अमित शाह की घड़ी दबाने के लिए श्री योगी जी का इस्तेमाल किया जाएगा। यदि अमित शाह कंट्रोल से बाहर जाते है तो योगी जी पीएम बनेंगे। दोनों ही स्थितियों में ये पेड मीडिया के एजेंडे को 2 गुना स्पीड से आगे बढ़ाएंगे।
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उनके पास दूसरा पैकेट श्री अरविन्द केजरीवाल है। यदि वे केजरीवाल जी को पीएम बनाना तय करते है तो केजरीवाल जी अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के एजेंडे को 4 गुना स्पीड से आगे ले जायेंगे।
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ऊपर जितना भी लिखा गया है उनमे से ज्यादातर तर्क एवं घटनाओं के बारे में निकाले गए मेरे निष्कर्ष पर आधारित है। लेकिन यदि आप इनके कार्यकाल में लिए गए फैसलों को देखे तो साफ़ तौर पर देख सकते है कि मनमोहन सिंह जी जिस दिशा में गाड़ी ले जा रहे थे, मोदी साहेब भी उसी दिशा में गाड़ी दौड़ा रहे है। एक फर्क इतना है कि मोदी साहेब की स्पीड मनमोहन सिंह जी से तेज है !!
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(3) अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों की नीतियों के कुछ मुख्य बिंदु जिन्हें मनमोहन सिंह जी एवं मोदी साहेब ने आगे बढ़ाया :
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(3.1) आर्थिक
(3.1.1) भारत के प्राकृतिक संसाधन, खनिज एवं आवश्यक सेवाओं जैसे मीडिया, पॉवर, बैंकिंग, माइनिंग, रेलवे, संचार, एविएशन के सरकारी उपक्रमों का अधिग्रहण करना।
मनमोहन सिंह जी ने भी देश की संपत्तियां बेची एवं मोदी साहेब भी इन्हें बेहद तेजी से बेच रहे है। जब सारी राष्ट्रिय संपत्तियां बिक जायेगी तो वे डॉलर रिपेट्रीएशन फाइल करेंगे और भारत को बैंक करप्ट करके बचा खुचे संसाधन भी टेक ओवर कर लेंगे। उन्होंने पिछले 20 साल में कितना क्या बेचा है इसके लिए गूगल करें । मैं यहाँ लिखूंगा तो जवाब में 30-40 पेज जोड़ने पड़ेंगे। लेटेस्ट में पॉवर सेक्टर की एक यूनिट (BPCL) बेचने की प्रक्रिया पिछले सप्ताह ही शुरू हुयी है – सरकार ने बीपीसीएल में हिस्सेदारी बेचने के लिए बोलियां आमंत्रित की, पीएसयू नहीं लगा पाएंगी बोली
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(3.1.2) गणित-विज्ञान का आधार तोड़ना।
मनमोहन सिंह जी ने 8 वीं तक फ़ैल न करने का क़ानून छापा था ताकि बच्चे बिना विज्ञान गणित समझे पास होते जाए। मोदी साहेब इससे भी आग गए। उन्होंने 9 वीं एवं 10 वीं की मैथ्स तोड़ने के लिए बेसिक मेथ का विकल्प लेने का क़ानून लागू किया। दिल्ली के 73% अभिभावकों ने इसकी चपेट में आकर अपने बच्चों को बेसिक मैथ्स दिला दी और बच्चे गणित की उत्तर पुस्तिका में सिर्फ अपना नाम लिखकर पास हो गए -- 73% of Class X students in Delhi govt schools opt for basic maths
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(3.1.3) भारत की स्थानीय निर्माण इकाइयों को तोड़ने के लिए अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों को रिग्रेसिव टेक्स सिस्टम चाहिए।
मनमोहन सिंह जी ने जीएसटी लाने की कोशिश की लेकिन सफल न हो पाए। मोदी साहेब ने आते ही जीएसटी डाल दिया !! सेल्स टेक्स, एक्साइज टेक्स, वैट एवं जीएसटी आदि सभी रिग्रेसिव टेक्स है।
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(3.1.4) मनमोहन सिंह जी भी जमीन की कीमतें कम करने के लिए कोई क़ानून नहीं छापा और मोदी साहेब ने भी इसके लिए कोई क़ानून नहीं छापा।
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(3.1.5) तकनिकी उत्पादन तोड़ने के लिए उन्हें अदालतों एवं पुलिस का ऐसा स्ट्रक्चर चाहिए कि पैसा फेंकने वाले का काम हो सके। दोनों ने इन दोनों विषयों को छुआ भी नहीं !!
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(3.2) सामरिक
(3.2.1) भारत की सेना की अमेरिकी-ब्रिटिश-फ्रेंच कम्पनियों पर निर्भरता बढ़ाना।
दोनों ने यथा शक्ति अमेरिकी-ब्रिटिश-फ्रेंच कम्पनियों के हथियार भारत की सेना में इंस्टाल किये और स्वदेशी हथियारों के उत्पादन को सुनिश्चित करने वाले क़ानून छापने से दूरी बनाकर रखी। मनमोहन सिंह जी भारत का परमाणु कार्यक्रम बंद कराया और मोदी साहेब ने इसे फिर से शुरू करने के आदेश निकालने से इनकार किया !!
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(3.2.2) भारत एवं विशेष रूप से कश्मीर में अपने सैन्य अड्डे बनाना।
मोदी साहेब ने इस मामले में अपने कार्यकाल का सबसे खतरनाक कदम उठाया। उन्होंने कोमकासा एग्रीमेंट साइन करके अमेरिकी जनरलो को भारतीय सेना में एक्सेस दी।
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(3.3) धार्मिक :
(3.3.1) अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक भारत में जनसँख्या नियंत्रण क़ानून डालने के खिलाफ रहे है ताकि धार्मिक जनसँख्या का संतुलन बिगाड़ कर देश का फिर एक बार विभाजन किया जा सके है। वे भारत में रह रहे 2 करोड़ अवैध विदेशी निवासियों को निष्काषित करने के भी खिलाफ है, ताकि जरूरत पड़ने पर इन्हें किसी भी समय हथियार भेजकर गृह युद्ध ट्रिगर किया जा सके।
दोनों ने जनसँख्या नियंत्रण करने एवं अवैध बंगलादेशीयों को निष्कासित करने का क़ानून नही छापा। मनमोहन ने हिन्दू-मुस्लिम तनाव बढ़ाने के लिए जो जमीन बनायी थी, मोदी साहेब ने उसमें फसल खड़ी करके काफी अच्छे नतीजे दिए।
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(3.3.2) दोनों ने मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में लेकर उनकी संपत्तियो का अधिग्रहण किया। मनमोहन ने गोल्ड बांड लाकर मंदिरों का सोना उठाने की कोशिश की थी पर ले नहीं पाए। मोदी साहेब ने मंदिरों को बांड बेच कर सोना ले लिया। मिशनरीज को भारत में विस्तार करने की छूट देने के मामले में भी मोदी साहेब ने ज्यादा अच्छा प्रदर्शन किया।
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तो इस तरह की बातें क्यों फैलती है कि मोदी साहेब पेड मीडिया को कंट्रोल कर रहे है ?
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क्योंकि जो लोग मीडिया को वास्तविक रूप से कंट्रोल करते है, वे चाहते कि लोग इस मुगालते में रहे। डेमोक्रेसी में यदि अवाम को यह शुबहा होने लगे कि पीएम धनिक वर्ग की कठपुतली की तरह काम कर रहा है, और उसमें वास्तविक ताकत नहीं है, तो नागरिक उसे वोट नहीं करते। इसीलिए पेड मीडिया के प्रायोजक पेड मीडियाकर्मियों को निर्देश देते है कि वे नागरिको के दिमाग में यह बात डाले कि मीडिया को उनका पीएम शक्तिशाली है और पूरे मुल्क को कंट्रोल कर रहा है। पेड रविश कुमार को इसीलिए “गोदी मीडिया” का नारा लगाने के लिए भुगतान किया जाता है।
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[ 1910 तक धनिक मीडिया को सामने से कंट्रोल करते थे, और इस वजह से अमेरिका में राष्ट्रपति की इज्जत दो कौड़ी की रह गयी थी। अमेरिकी राजनेताओ एवं शासन ने पेड मीडिया के प्रायोजको को कंट्रोल करने की काफी कोशिश की लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाए। जितना ही उन्होंने पेड मीडिया के प्रायोजको से टकराव लिया उतना ही उनकी इज्जत उतरती चली गयी। अत: 1910 में पेड मीडिया के प्रायोजको एवं राजनेताओ में या समझौता हुआ कि पेड मीडिया के प्रायोजक नेपथ्य में चले जायेंगे और राजनेता उन्हें चेस करना छोड़ देंगे। तब से उन्होंने खुद को फ्रेम में से निकाल दिया है। ]
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पेड मीडिया के प्रायोजको एवं अमेरिकी सरकार के बीच खुले संघर्ष के इन विवरणों के लिए John D. Rockefeller and standard oil monopoly पर गूगल करें।
एक आर्टिकल यह भी देख सकते है - Constitutional Rights Foundation
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सलंग्न : 1890 में मुख्यधारा के पेड मीडिया में प्रकाशित कार्टून जो स्टेंडर्ड ऑयल के मुखिया रोकेफेलर को सत्ता के साथ खेलते हुए दिखाता है !! दुनिया के लगभग 40% तेल पर आज भी रोकेफेलर परिवार का एकाधिकार है, और निर्णायक हथियार बनाने वाली कई हथियार कंपनियों में होल्डिंग है।
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यह गलत धारणा पेड मीडिया द्वारा ही फैलाई गयी है कि मोदी साहेब मीडिया को कंट्रोल कर रहे है । असल में मीडिया को कंट्रोल करना किसी भी सरकार के लिए मुमकिन नहीं है। चाहे सरकार कितनी भी ताकतवर क्यों न हो !!
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पिछले 200 वर्षो में दुनिया के किसी भी देश की कोई भी सरकार प्राइवेट मीडिया को नियंत्रित नहीं कर पायी है। सरकार के पास प्राइवेट मीडिया को कंट्रोल का एक मात्र तरीका यह है कि — वह देश के सारे प्राइवेट मीडिया को बंद कर दे, और सिर्फ सरकारी मीडिया को काम करने अनुमति दे।
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मीडिया पूरी तरह से धनिकों के नियंत्रण में ही रहता है। और धनिकों में भी यह उन धनिकों के नियंत्रण में रहता है जो हथियारों का निर्माण कर रहे है। भारत का मीडिया हथियार बनाने वाली अमेरिकी-ब्रिटिश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिको के पूर्ण नियंत्रण में है, और वे ही भारतीय मीडिया के प्रायोजक है। जो नेता पेड मीडिया के प्रायोजकों के एजेंडे को आगे बढ़ाने का काम करते है उन्हें पेड मीडिया में कवरेज दिया जाता है, वर्ना नहीं दिया जाता। किन्तु लोकतंत्र का लिहाज रखने के लिए नागरिको को यह बुत्ता दिया जाता है कि नेता कंट्रोल कर रहा है !!
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चुनाव जीतने एवं छवि बनाए रखने के लिए सभी नेता पेड मीडिया के प्रायोजको का समर्थन चाहते है, अत: वे पेड मीडिया के प्रायोजकों से संपर्क करके कहते है कि, आप एक बार हमें मौका दो, और हम आपके एजेंडे को बेहद तेजी से आगे बढ़ाएंगे। इस तरह सभी पार्टियों के सभी नेताओं में पेड मीडिया का सपोर्ट लेने के लिए एक प्रकार का कम्पीटीशन रहता है। क्योंकि पेड मीडिया के पास भारत का सबसे बड़ा वोट बैंक है !!
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[ इस जवाब के खंड (1) में मैंने तर्क एवं कुछ तथ्यों के आधार पर बताया है कि यूपीए सरकार के समय भी मीडिया सरकार के वश में नहीं था, और मोदी सरकार का भी पेड मीडिया पर शून्य ( मतलब जीरो = 0 ) नियंत्रण है !! खंड (2) बताता है कि कैसे पेड मीडिया के प्रायोजको के सहयोग से मनमोहन सिंह जी एवं मोदी साहेब अपने प्रतिद्वंदियों को पछाड़ कर शीर्ष स्तर तक पहुंचे। ]
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खंड (1)
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क्यों प्राइवेट मीडिया को कोई भी सरकार नियंत्रित नहीं कर सकती
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व्यवसायिक रूप से पेड मीडिया घाटे का धंधा है। जैसे जैसे मीडिया समूह विस्तार करता है, इसका घाटा भी बढ़ता जाता है। जितनी बड़ी मीडिया कम्पनी उतना ज्यादा घाटा। जितनी छोटी मीडिया कम्पनी उतना कम घाटा। अब आपको यह अजीब लगेगा कि ऐसा कैसे हो सकता है। लेकिन सच यही है कि मीडिया व्यवसायिक रूप से घाटे में ही चलता है।
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यदि आप सहज बोध (Common Sense) से इस दिशा में अवलोकन करना शुरू करेंगे तो इसे आसानी से समझ सकते है कि पेड मीडिया कैसे घाटे का धंधा है। और यदि आप इसे धरातल पर घटित होते देखना चाहते है तो, यह मानते हुए कि आपके पास 100 से 500 करोड़ की पूँजी है, एक मॉस मीडिया कम्पनी शुरु करने का प्रोजेक्ट बनाए और वास्तविक आंकड़ो की गणना करें कि एक राष्ट्रिय स्तर का अख़बार / चैनल शुरू करने के लिए आपको कितना पैसा लगेगा और इससे मासिक / सालाना कितनी कमाई होगी।
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यदि आप प्रोजेक्ट बनाने के लिए गंभीरत से प्रयास करते है तो 1-2 महीने में आपको आपकी ही प्रोजेक्ट रिपोर्ट यह बता देगी कि यह धंधा आपको किस दर से घाटा बनाकर देगा।
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उदाहरण के लिए इन्डियन एक्सप्रेस या टाइम्स ऑफ़ इण्डिया की एक प्रति छापने में सिर्फ कागज एवं प्रिंटिंग की लागत 16 से 20 रू आती है, लेकिन आपको हॉकर यह प्रति 3 रू में दे जाता है !! आप सोचते है कि, शेष पैसा विज्ञापनों से आता है। लेकिन जब आप विज्ञापनों का हिसाब लगायेंगे तो मालूम होगा कि विज्ञापनों से 25 से 30% के आस पास लागत ही वसूल होती है। तो बाकी पैसा वे कहाँ से ला रहे है ? ये पैसा मीडिया समूह 2 स्त्रोतों से लाते है :
वे अपने प्रायोजको से अनुदान लेते है
वे खबरे बेचते है
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ख़बरें बेचने से आशय है कि किसी अख़बार के फ्रंट पेज पर जितनी भी खबरें छपती है उन्हें छापने का पैसा लिया जाता है !! मतलब, यदि दैनिक भास्कर ने फ्रंट पेज पर खबर लगाई है कि “Yes bank डूब गया” तो इसे छापने का पैसा लिया जाता है !! यदि पैसा नहीं दिया गया तो वे इस खबर को इस तरह ड्राफ्ट करेंगे कि सरकार के वोट कट जायेंगे !! तो अख़बार में Yes bank के डूबने की खबर तो आएगी, लेकिन ड्राफ्टिंग कैसी होगी, इसके लिए पेमेंट करनी होती है !! और इसी तरह से वे पूरा अख़बार बेचते है !! प्रत्येक खबर के एवज में पैसे लिए जाते है। और ठीक इसी तरह से टीवी पर भी खबरें बिकती है।
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राजनैतिक खबरों को खरीदने वाले दो वर्ग है। एक वर्ग राजनैतिक पार्टियाँ, नेता, सरकार है, और दूसरा वर्ग वे धनिक है जिनके धंधे को राजनैतिक नीतियाँ प्रभावित करती है। जो ज्यादा बड़ी बोली लगाएगा खबर का प्लाट उसे बेच दिया जायेगा !!
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अब पेड मीडिया के प्रायोजको को तो चुनाव नहीं लड़ना है, अत: मीडिया में जितना भी पैसा वे फूंक रहे है वह उनका घाटा है। इस घाटे को वे कवर कैसे करते है ? वे मीडिया को कंट्रोल करके नेताओं को कंट्रोल करते है, और फिर नेताओं से गेजेट में ऐसी इबारतें छपवाते है, जिससे उन्हें फायदा हो। और इस अतिरिक्त मुनाफे से वे अपना घाटा पूरा कर लेते है। तो व्यावसायिक रूप से मीडिया घाटा बनाता है, लेकिन राजनैतिक लाभ लेकर इसे मुनाफे में बदल लिया जाता है।
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अब यहाँ इस बात को समझना जरुरी है कि एक भ्रष्ट नेता गेजेट में ऐसी इबारतें नहीं छाप सकता जिससे वह बड़े पैमाने पर "कानूनी रूप से" पैसा बना सके। इसके लिए उसे भ्रष्टाचार करना होगा और वह जांच / संदेह के दायरे में आ जाएगा। लेकिन धनिक वर्ग के पास ऐसा इन्फ्रास्त्रक्चर होता है कि वे गेजेट में छापी गयी इबारतो से अरबों रूपये का अतिरिक्त मुनाफा बना सकते है। और यह मुनाफा पूरी तरह से कानूनी होगा, गैर कानूनी नहीं।
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सामंजस्य : यदि सत्ताधारी पार्टी पेड मीडिया के प्रायोजको के हितो में नीतियाँ बनाती है तो सरकार एवं पेड मीडिया के प्रायोजको के आपसी सम्बन्ध मधुर बने रहेंगे, और नेता को सकारत्मक कवरेज मिलेगा।
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टकराव : और यदि सरकार पेड मीडिया के प्रायोजको के हितो के खिलाफ नीतियाँ बनाती है तो टकराव शुरू होगा। जब टकराव आएगा तो सरकार मीडिया को अपने फेवर में लेने की कोशिश शुरू करेगी। और फिर पेड मीडिया कर्मियों को कंट्रोल करने के सरकार के पास 2 रास्ते है :
पैसे से खरीदना
पेड मीडियाकर्मियों को दबाव में लेना
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पैसे से खरीदना : सरकार भ्रष्टाचार करके कितना भी पैसा बना ले किन्तु वे पेड मीडिया का घाटा पूरा नहीं कर सकते। भारत की बात करें तो लगभग 25 न्यूज चेनल एवं 50 बड़े अख़बार है जो प्रतिदिन खबरों के नाम पर अफीम बाँटते है। इसके अलावा फेसबुक, व्हाट्स एप आदि जैसी कम्पनियों का घाटा भी पूरा करना होता है।
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सरकार इतने बड़े स्ट्रक्चर का घाटा पूरा नहीं कर सकती। पेड मीडिया के प्रायोजक यह घाटा इसीलिए पूरा कर सकते है, क्योंकि उनके पास पैसे की बारिश करने वाले कारखाने है, और वे सालो साल से इन मीडिया समूहों का घाटा पूरा कर रहे है। मतलब अब यह बोली लगाने वाला मामला है। धनिक वर्ग सरकार से ज्यादा बोली लगाएगा और मीडियाकर्मी धनिक वर्ग की तरफ चला जायेगा।
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मीडियाकर्मियों को दबाव में लेना : यदि सरकार पेड मीडियाकर्मियों को खरीद नहीं पा रही है तब वे मीडिया को दबाना शुरू करेंगे। किन्तु पेड मीडिया के प्रायोजको के खिलाफ जाकर मुख्य धारा के किसी मीडिया हाउस को दबाना भी मुमकिन नहीं है। क्योंकि पेड मीडिया के प्रायोजको के पास हथियार है !!
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पेड मीडिया के प्रायोजक अमेरिकन-ब्रिटिश-फ्रेंच बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिक है। ये कम्पनियां फाइटर प्लेन, लेसर गाईडेड बम, लेसर गाइडेड मिसाईले, ड्रोन जैसी चीजे बनाती है। इन हथियारों पर नियंत्रण होने के कारण उनके पास वास्तविक ताकत है। अत: पीएम इन कम्पनियों को दबाने का प्रयास करेगा तो ये कम्पनियां उसे युद्ध में खींचेगी।
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तो जब तक सरकार या पीएम के पास हथियार निर्माताओं से टक्कर लेने वाले हथियार ना हो तब तक पीएम सरकारी मीडिया को भी नियंत्रित नहीं कर सकता।
और प्राइवेट मीडिया को तो हथियार होने के बावजूद भी नियंत्रित नहीं किया जा सकता। क्योंकि प्राइवेट मीडिया का घाटा पूरा करने के लिए लगातार पैसा चाहिए होता है, जो कि सरकार के पास नहीं होता।
यदि सरकार प्राइवेट मीडिया को कंट्रोल करने की कोशिश करेगी तो उसे इसका अधिग्रहण ही करना पड़ेगा। और जैसे ही सरकार प्राइवेट मीडिया का अधिग्रहण करेगी यह सरकारी मीडिया हो जाएगा। और इस तरह पीएम को मीडिया पर कंट्रोल लेने के लिए सभी प्राइवेट मीडिया हाउस का अधिग्रहण करना पड़ेगा।
यदि पीएम देश के सभी प्राइवेट मीडिया हाउस का अधिग्रहण कर लेगा तो फ्रीडम ऑफ़ एक्प्रेशन का निलम्बन हो जाएगा और डेमोक्रेसी ख़त्म हो जायेगी !!
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दुसरे शब्दों में प्राइवेट मीडिया पर सरकार का नियंत्रण और डेमोक्रेसी साथ साथ एग्जिस्ट नहीं करती !! ये दोनों चीजे साथ साथ होती ही नहीं है। यदि किसी देश में प्राइवेट मीडिया है तो इसे हमेशा धनिक वर्ग ( हथियार निर्माता ) ही नियंत्रित करेगा, चाहे सरकार कितनी भी ताकतवर क्यों न हो।
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इसे फिर से पढ़िए - प्राइवेट मीडिया पर सरकारी नियंत्रण और डेमोक्रेसी साथ साथ एग्जिस्ट नहीं कर सकती है !!
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कुछ वास्तविक उदाहरण देखिये ;
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(a) स्टालिन : जोसेफ स्टालिन (1922–1953) ने बड़े पैमाने पर हथियारों का उत्पादन करना शुरू किया था, और उसने अमेरिकी-ब्रिटिश कम्पनियों को सोवियत रूस में आने की अनुमति नहीं दी। यदि स्टालिन प्राइवेट मीडिया को अनुमति दे देते तो अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक किसी न किसी तरीके से स्टालिन को चित कर देते। अत: स्टालिन ने मीडिया का 100% अधिग्रहण कर लिया और सोवियत रूस में डेमोक्रेसी ख़त्म हो गयी। आज रूस के पास अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के बराबर ताकतवर हथियार है, किन्तु मीडिया आज भी 100% रूसी सरकार के कंट्रोल में है। प्राइवेट मीडिया को वहां काम करने की अनुमति नहीं है। यदि रूस प्राइवेट मीडिया को आज भी अनुमति दे देता है, तो अगले 20-25 साल में अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक रूस के फिर से 8 से 10 टुकड़े कर देंगे।
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वजह यह है कि, रूस के पास जूरी सिस्टम नहीं है। और जूरी सिस्टम न होने के कारण उनके पास हथियार निर्माण करने वाली निजी कम्पनियां नहीं है। रूस के सभी निर्णायक हथियार सरकारी कम्पनियां बनाती है। तो यदि रूस में प्राइवेट मीडिया खोल दिया जाता है, तो अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक निजी मीडिया को वहां पर सरकारी मीडिया से भी ज्यादा शक्तिशाली बना देंगे। सरकारी मीडिया इतना घाटा नहीं उठा सकेगा, और निजी मीडिया की तुलना में पिछड़ जायेगा।
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और एक बार यदि प्राइवेट मीडिया सरकारी मीडिया से ज्यादा ताकतवर हो गया तो पेड मीडिया का इस्तेमाल करके रूस के 5-7 टुकड़े करना मामूली बात है। तब रूस के राष्ट्रपति को देश बचाने के लिए फिर से प्राइवेट मीडिया का अधिग्रहण करना पड़ेगा !! तो स्टालिन को हथियार भी बनाने थे, और जूरी सिस्टम भी नहीं लाना था। तो फिर एक ही रास्ता बचता है – पेड मीडिया का अधिग्रहण किया जाए।
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(b) चेयरमेन माओ : माओ जिडोंग के साथ भी यही मामला था। उसे भी हथियार बनाने थे और जूरी सिस्टम भी नहीं लाना था। तो उसको भी सबसे पहले मीडिया का अधिग्रहण करना पड़ा। और फिर उसने सरकारी हथियार बनाने शुरू किये। यदि माओ अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों को मीडिया चेनल खोलने देता तो वे अगले 5 वर्ष में ही चीन को आधा दर्जन टुकड़ो में विभाजित करके माओ को निपटा देते।
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चीन आज अपनी सेना काफी मजबूत कर चुका है, लेकिन आज भी यदि चीन प्राइवेट चेनल को अनुमति दे दे तो अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक बिना कोई युद्ध लड़े अगले 20 साल में चीन को के राजनेताओ पर कंट्रोल ले लेंगे। और पूरा मीडिया खोलने की भी जरूरत नहीं है। सिर्फ फेसबुक और गूगल को आने दो तो ये दो कम्पनियां भी चीन को काबू करने के लिए काफी है। चीन मीडिया में विदेशी निवेश खोल नहीं रहा है, और इस वजह से चीन को अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के साथ युद्ध लड़ना पड़ेगा।
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(c) हिटलर एवं मुसोलिनी : इन्होने भी वही ट्रेक लिया। मीडिया पर हिटलर का 100% कंट्रोल था। कोई प्राइवेट मीडिया नहीं। हिटलर बड़े पैमाने पर सरकारी हथियारों का निर्माण कर रहा था, अत: मीडिया पर कंट्रोल लेना जरुरी था। हिटलर मीडिया को छोड़ देता तो सेना नहीं खड़ी कर पाता।
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(d) ईराक-ईरान : सद्दाम हुसैन ने अमेरिकी-ब्रिटिश कम्पनियों को मीडिया चेनल नहीं खोलने दिए, अत: उसे अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के साथ युद्ध में जाना पड़ा। यदि ईराक प्राइवेट मीडिया आने देता तो अमेरिकी-ब्रिटिश शांतिपूर्ण तरीके से सद्दाम को हटाकर मिनरल्स टेकओवर कर लेते, और ईराक युद्ध से बच जाता।
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अभी ईरान भी इसी रास्ते पर है। ईरान में मीडिया पर काफी सेंसरशिप है। ईरान में वोटिंग होती है, लेकिन मीडिया पर 100% सरकारी नियंत्रण है। अभी ईरान यदि मीडिया में विदेशी निवेश खोल देता है तो अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक 5-7 साल में नागरिको को भेड़ा बनाकर ऐसे नेताओं को शीर्ष पर पहुंचा देंगे जो ईरान के मिनरल्स अमेरिकी कम्पनियों को देना शुरू करें। मतलब, ईरान में शिया-सुन्नी में घर्षण बढ़ जाएगा और अमेरिकी-ब्रिटिश कम्पनियां वहां पर “विकास” करने लगेगी। और विकास का सामान (यानी मिनरल्स) ख़त्म होने तक ईरानियो को मालूम ही नहीं चलेगा कि विकास किसका हो रहा था !!
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दुसरे शब्दों में, ईरान प्राइवेट मीडिया को अनुमति देने से इंकार करके ईरान के विकास में बाधा डाल रहा है, अत: अब अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों को न चाहते हुए भी पहले ईरान से युद्ध करना पड़ेगा और तब वे वहां पर विकास कर पायेंगे। क्योंकि अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक असली "विकास पुरुष" है। उन्होंने पूरी दुनिया के उन देशो में विकास करने का संकल्प लिया हुआ है, जो हथियार भी नहीं बनाते है, और उनके पास मिनरल्स भी है !! रूस के पास भी काफी मिनरल्स है, किन्तु चूंकि रूस अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों को टक्कर देने वाले हथियार बना चुका है, अत: अमेरिकी-ब्रिटिश-फ्रेंच धनिक वहां विकास करने नहीं जाते।
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(e) इंदिरा गाँधी जी : इंदिरा जी ने भी हथियार बनाने शुरू किये तो पहले उन्होंने दूरदर्शन के माध्यम से कम्पीट करने की कोशिश की। पर अंत में उन्हें आपातकाल लगाकर मीडिया पर प्रतिबन्ध लगाने पड़े। वे भारत की अब तक की सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री थी, लेकिन प्राइवेट मीडिया को वे भी नियंत्रित नहीं कर पायी थी।
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(f) अमेरिका : अमेरिका के पास आज दुनिया की सबसे शक्तिशाली सेना है, और इसके बावजूद अमेरिका के मीडिया पर वहां के हथियार निर्माताओ का ही नियंत्रण है, राष्ट्रपति का नहीं। पर चूंकि अमेरिका का मीडिया अमेरिकी धनिकों के ही नियंत्रण में है विदेशियों के नहीं, और अमेरिकी नागरिको के पास जूरी सिस्टम-राईट टू रिकॉल-जनमत संग्रह-मल्टी इलेक्शन एवं बंदूक रखने की आजादी है अत: वहां का प्राइवेट मीडिया अमेरिकी हितो का नुकसान नहीं पहुंचाता।
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ऊपर दिए गए सभी ताकतवर लोगो ने हथियार बनाने के बड़े पैमाने पर प्रयास किये और इन सभी को प्राइवेट मीडिया को प्रतिबंधित करना पड़ा। क्योंकि यदि ये लोग पेड मीडिया को काम करने की अनुमति दे देते तो अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक इन्हें गिराने में कामयाब हो जाते।
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मेरा बिंदु यह है कि असल में दुनिया की कोई भी सरकार आज तक प्राइवेट मीडिया को कंट्रोल नहीं कर पायी है। यदि सरकार के पास हथियार है तब भी सिर्फ सरकारी मीडिया नियंत्रित किया जा सकता है, प्राइवेट मीडिया को नहीं। प्राइवेट मीडिया से तालमेल बनाने का सिर्फ एक ही तरीका है – चुपचाप पेड मीडिया के प्रायोजको के एजेंडे को आगे बढ़ाने वाले क़ानून गेजेट में छापते रहो, और बदले में पेड मीडियाकर्मी नेताजी को जनता के सामने सुपरमेन बना कर दिखाते रहेंगे।
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अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों का सिंगल पॉइंटेड एजेंडा यह है कि कोई देश आधुनिक एवं निर्णायक हथियार नहीं बनाएगा !! और यह एजेंडा कोई छुपा हुआ नहीं है। एकदम खुली हुई बात है।
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ऊपर दिए गए लोगो ने हथियार बनाने शुरू किये और और इसीलिए अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के साथ इनका घर्षण बढ़ गया था। और इन लोगो को मीडिया पर प्रतिबन्ध लगाने पड़े।
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तो मनमोहन सिंह जी एवं मोदी साहेब का मीडिया पर कितना वश है ?
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शून्य !! जीरो !! अंडा !! मतलब = 0 !!
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सबूत ?
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पहली बात तो यह कि हम हथियार नहीं बनाते। असल में हम अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के हथियारों पर ही अपनी सेना चला रहे है। तो उनसे टक्कर लेने का सवाल ही नहीं। और जहाँ तक पैसे से खरीदने की बात है, न तो बीजेपी के पास उतना पैसा है और न ही कोंग्रेस के पास कि वे मीडिया खरीद सके। ये खुद ही विदेशियों के चंदे पर चल रहे है, मीडिया का घाटा किधर से पूरा करेंगे। अभी बीजेपी=संघ को विदेशियों से 950 करोड़ एवं कोंग्रेस को 150 करोड़ बेनामी इलेक्टोरल बांड से मिले है। इसी पैसे से इनकी आई टी सेल वगेरह के कर्मचारियों को वेतन आदि दिए जाते है, और इनके कट आउट, झंडी बैनर आदि छपते है।
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यदि संघ=बीजेपी मीडिया का घाटा पूरा कर सकती थी, तो वो पिछले 70 साल में अपना खुद का मीडिया हाउस स्थापित कर लेती थी। उन्होंने कोशिश भी की पर खड़ा नहीं कर पाए। पांचजन्य उन्होंने 1948 में और पाथेय कण 1987 में शुरू किया था। सरकार बना ली लेकिन अपना मीडिया खड़ा नहीं कर पाए !! और इसीलिए चुनाव जीतने के लिए उन्हें पेड मीडिया की जरूरत होती है।
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पाथेय कण - राष्ट्रीय विचारों का सजग प्रहरी
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पाञ्चजन्य - राष्ट्रीय हिंदी साप्ताहिक पत्रिका | Panchjanya - National Hindi weekly magazine
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जवाहर लाल ने भी 1938 में नेशनल हेरल्ड नाम से पेपर शुरू किया था। यह लगातार वित्तीय संकट से जूझता रहा। अंत में अपडेटेड प्रिंटिंग मशीनों के अभाव में घाटा खाकर बंद हो गया !! एक समय पूरा देश ही कोंग्रेस को वोट करता था, लेकिन पेपर उनसे भी नहीं चला !! मलतब, सरकार बनाना आसान है, लेकिन मीडिया हाउस खड़ा करना और उसे चलाते रहना और उसे कंट्रोल करना उससे भी बड़ा काम है। जब तक आप हथियार बनाने की फैक्ट्रियां नहीं चला रहे हो तब तक आप प्राइवेट मीडिया को कंट्रोल नहीं कर सकते !! अभी 2017 में इन्होने नेशनल हेरल्ड का डिजिटल वर्जन ( यानी मुफ्त का मीडिया ) निकालना शुरू किया है।
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National Herald: Live News Today, India News, Top Headlines, Political and World News
The paper had failed to modernise its print technology and had not computerised at the time of suspending operations and had been making losses for several years owing to lack of advertising revenues and overstaffing.
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शिवसेना के पेपर “सामना” की भी यही दशा है। इसे 1988 में बाला साहेब ने शुरू किया था !! ये भी हमेशा हाशिये पर ही रहा, मुख्य धारा में नहीं आ पाया।
Saamana (सामना) | Latest Marathi News | Live Maharashtra, Mumbai, Pune, Nashik News | Marathi Newspaper | ताज्या मराठी बातम्या लाइव
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ये सब तो सामने के प्रयास है। इसके अलावा परदे के पीछे से भी एंट्री मारने के काफी प्रयास इन्होने किये। असल में कोंग्रेस, संघ=बीजेपी, शिवसेना आदि हथियार बनाने की फैक्ट्रियां नहीं चलाते है, इसीलिए मीडिया खड़ा नहीं पर पाए। मीडिया पर कंट्रोल लेने की पहली शर्त यह है कि आपके पास हथियार बनाने के कारखानो पर नियंत्रण होना चाहिए। क्योंकि सिर्फ पैसे से मीडिया पर कंट्रोल आता था तो साबुन और शेम्पू बनाकर पैसा कमाने वाले (अम्बानी-टाटा) लोग भी मीडिया कम्पनियां खोल लेते थे।
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सार की बात यह है कि राजनीति को पूरी तरह से पेड मीडिया के प्रायोजक (हथियार निर्माता) कंट्रोल करते है, और उनका सहयोग लिये बिना आप सरकार में शीर्ष स्तर पर नहीं आ सकते। और यदि आप पेड मीडिया के प्रायोजको का सहयोग लेकर सत्ता में आयेंगे तो आपको उनके एजेंडे पर ही काम करना पड़ेगा।
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और उनका एकनिष्ठ एजेंडा यह है कि — आप हथियार नहीं बनाओगे बल्कि अमेरिकी-ब्रिटिश-फ्रेंच कम्पनियों के हथियार ही खरीदोगे, ताकि वे आपकी सेना को नियंत्रित कर सके !!
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आप उनके एजेंडे से एक इंच भी इधर उधर हुए तो वे आपका प्लग निकाल देंगे, और पेड मीडिया की सहायता से नया नेता इंस्टाल कर देंगे।
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खंड (2)
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मनमोहन सिंह जी एवं मोदी साहेब का पेड मीडिया से तालमेल
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(1) मनमोहन सिंह जी : मनमोहन सिंह जी वित्त विभाग में बाबू थे, और राजनीति से उनका कोई लेना देना नहीं था। आई एम् ऍफ़ में नौकरी करने के दौरान उन्होंने अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों को एप्रोच किया। चुनाव हुए और कोंग्रेस सत्ता में आयी। मनमोहन सिंह जी ने कोंग्रेस जॉइन की और उन्हें सीधे वित्त मंत्री बना दिया गया। (यदि कोंग्रेस सरकार नहीं बना पाती तो मनमोहन सिंह जी उस पार्टी को जॉइन करते जो पार्टी सरकार बनाती थी !!)
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और मनमोहन सिंह जी ने अपने पहले ही बजट में WTO साइन करके अमेरिकी-ब्रिटिश कम्पनियों के लिए देश खोल दिया। पेड मीडिया के प्रायोजक 1991 में भारत में इतने मजबूत थे कि उन्होंने एक बाबू को देश का वित्त मंत्री बना दिया था !! सीधे पैराशूट लेंडिंग !!
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वाजपेयी ने अपने पहले कार्यकाल में परमाणु परिक्षण कर दिया जिससे पेड मीडिया के प्रायोजक नाराज हो गए। उन्होंने अपने पुराने अय्यार SS को एप्रोच किया। SS ने तमिलनाडु के हाईकोर्ट जज के हवाले से जयललिता को धमकाया और जयललिता सरकार गिराने को राजी हो गयी । इस तरह SS ने सोनिया+जयललिता के बीच समझौता करवाकर वाजपेयी सरकार गिरायी।
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Swamy's reception will bring Sonia and Jaya together
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How Vajpayee Government Was Defeated By A Single Vote In 1999
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लेकिन नए चुनावों में वाजपेयी फिर से जीत कर आ गए और उन्होंने सरकार बना ली। तब अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों ने पाकिस्तान को हथियार भेजकर कारगिल पर चढ़ाई करने को कहा, और भारत के हथियारों की सप्लाई लाइन काट दी। इस तरह उन्होंने हथियारों के बल पर वाजपेयी को काबू किया !!
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2004 में उन्होंने मनमोहन सिंह जी को पीएम बनाया, और उन्होंने फिर से पेड मीडिया के प्रायोजको के एजेंडे को गति देना शुरू किया। UPA-1 के दौरान अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक चुनाव प्रणाली में evm इंस्टाल कर चुके थे। 2009 के चुनावी नतीजो को evm द्वारा मेनिपुलेट किया गया था। बीजेपी=संघ ने फिर से चुनाव कराने की मांग को लेकर आन्दोलन चलाया, किन्तु पेड मीडिया के प्रायोजको द्वारा धमकाने पर वे पीछे हट गए। इस तरह UPA-2 सरकार evm की देन थी।
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बाद में, 2010 में सुप्रीम कोर्ट में यह साबित हुआ कि 2009 के चुनावों में जिन evm का इस्तेमाल किया गया था उनमें वोटो की हेरा फेरी की जा सकती थी। चुनाव आयोग ने तब पुरानी सारी evm केंसिल की और नए डिजाइन का evm लांच किया। vvpat वाले वर्जन इसीलिए लाये गए थे। लेकिन चुनाव आयोग जो नया डिजाइन लाया है, वह पुरानी evm का भी बाप है। मतलब नए डिजाइन में और भी ज्यादा आसानी से बड़े पैमाने पर वोटो को बदला जा सकता है।
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10 साल तक मनमोहन सिंह जी की छवि को सूतने के बाद उन्होंने डॉक्टर साब को रिटायर कर दिया।
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(2) श्री नरेंद्र मोदी : इंदिरा गाँधी Vs अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक संघर्ष के दौरान संघ के नेता अपने राजनैतिक हितो के लिए स्वाभाविक रूप से अमेरिकी-ब्रिटिश धनिको के पाले में चले गए थे। 1990 आते आते अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक कोंग्रेस को टेक ओवर कर चुके थे और सोवियत के टूटने के बाद भारत में आंतरिक राजनीति का एक मात्र ध्रुव अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक रह गए। मतलब, एंटी अमेरिकी नेताओं का कोई धनी नहीं बचा था।
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WTO समझौता होने के कारण भारत ऑफिशियली अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के लिए खुल चुका था, अत: बीजेपी=संघ के नेताओं ने अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों को जॉइन कर लिया, और उनके सहयोग से सत्ता में आने के प्रयास करने शुरू किये। अब उनके पास कोई चारा भी नहीं था। क्योंकि यदि संघ=बीजेपी अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के खेमे में नहीं चले जाते तो अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक दूसरा ध्रुव बनाने के लिए किसी अन्य पार्टी को खड़ा करते। क्योंकि राजनीति में टोटल कंट्रोल तभी मिलता है, जब आप पक्ष एवं विपक्ष दोनों को फंडिंग करते हो।
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तो संघ=बीजेपी के नेताओं में अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों से गठजोड़ बनाने का कम्पीटीशन शुरू हुआ, और इस मामले में मोदी साहेब ने रफ्ता रफ्ता अपने सभी प्रतिद्वंदियों को पीछे छोड़ दिया !!
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(2.1.) मोदी साहेब ने पहली छलांग 1993 में लगायी जब वे IVLP की सीट लेने में कामयाब रहे। IVLP (International Visitor Leadership Program ) अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ़ स्टेट द्वारा चलाया जाने वाला एक ट्रेनिंग कोर्स है। यह काफी हाई प्रोफाइल प्रोग्राम है। इसके लिए प्रतिभागियों का चयन अमेरिका द्वारा ही किया जाता है, आप इसमें आगे होकर आवेदन नहीं कर सकते। अमेरिका ने संघ को एक बंदा भेजने को कहा और मोदी साहेब ने यह सीट ले ली। मोदी साहेब को इस डिपार्टमेंट ने दो बार ट्रेनिंग दी है। 1993 में एवं 1999 में।
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2014 से पहले इसे तथ्य को पेड मीडिया में कभी रिपोर्ट नहीं किया गया था। अमूमन मुख्यमंत्री जैसे पद पर जाने के बाद व्यक्ति से जुडी इस तरह की घटनाएं सार्वजनिक हो ही जाती है, किन्तु 2013 तक भी इस घटना को कभी भी किसी मुख्य धारा के मीडिया समूह ने रिपोर्ट नहीं किया। 2014 तक सोशल मीडिया काफी ताकतवर हो चुका था, और कई एकाउंट से मोदी साहेब की अमेरिका विजिट की तस्वीरें सामने आने लगी। तब इस घटना को मीडिया में रिपोर्ट किया गया, लेकिन ट्रेनिग प्रोग्राम की बात फिर भी छिपा ली गयी।
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2014 में लिखे गए पेड फर्स्ट पोस्ट का यह आर्टिकल पढ़िए। यह आर्टिकल कहता है कि मोदी साहेब अमेरिका में संघ के प्रचारक के रूप में गए थे !! इस बात को बेहद सफाई से छिपा लिया गया है कि मोदी साहेब अमेरिका में संघ के प्रचारक के रूप में नहीं गए थे, बल्कि अमेरिका के सरकारी लीडरशिप प्रोग्राम के ऑफिशियली ट्रेनी थे।
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Summer of '93: Check out young Narendra Modi hanging out in US - Firstpost
New York was like a "second-home" for Narendra Modi "who stayed for weeks at a time in the US as a party apparatchik tasked with spreading the gospel of the sangh parivar in America.न्यूयॉर्क "नरेंद्र मोदी के लिए एक दूसरे घर" जैसा था, और अमेरिका में किसी समय वे संघ परिवार का प्रचार करने के उद्देश्य से हफ्तों तक रहे थे !!
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अब 2017 में अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ़ स्टेट के अधिकृत फेसबुक पेज पर किया गया यह पोस्ट देखिये, जिसमें यह तथ्य दर्ज है कि मोदी साहेब की अमेरिकी विजिट इस प्रोग्राम का हिस्सा थी।
Exchange Programs - U.S. Department of State
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[ यहाँ मेरा आशय यह नहीं है कि अमेरिकियों ने मोदी साहेब को ट्रेनिंग दी है अत: अमेरिकी-ब्रिटिश धनिको के एजेंट है। दरअसल, नेता आगे बढ़ने के लिए मौका देखकर सभी विकल्पों का इस्तेमाल करते है, और इसमें कोई गलत बात भी नहीं है। उदाहरण के लिए 1998 में संघ=बीजेपी ने सत्ता में आने के लिए अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों का सहयोग लिया था लेकिन सरकार बनाने के बाद वाजपेयी ने परमाणु परिक्षण किया। लेकिन इस बिंदु का इसलिए महत्त्व है कि यहाँ से मोदी साहेब के लिए उन ताकतवर लोगो का सहयोग मिलने का रास्ता खुल गया था, जो भारत एवं वैश्विक राजनीती को नियंत्रित करते है। ]
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(2.2.) दूसरा मौका उन्हें कारगिल युद्ध के दौरान मिला। कारगिल में हमें लेसर गाइडेड बम चाहिए थे, और इस विजिट को सीक्रेट रखा जाना था। कारगिल युद्ध के दौरान मोदी साहेब जाकर आईएम्ऍफ़ एवं विश्व बैंक के अधिकारियों से यह सहमती बनाने के लिए मिले कि यदि अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक भारत को हथियारों की मदद देते है, और पाकिस्तान को हथियारों की मदद रोक देते है तो भारत अपनी अर्थव्यवस्था के कौन कौन से क्षेत्र खोल देगा।
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उनकी पहली मांग मीडिया में विदेशी निवेश की अनुमती थी, ताकि अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक भारत में अपने चैनल खोल सके। 2002 में भारत ने मीडिया अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के लिए खोल दिया। इसके अलावा भी ढेर सारी शर्तें थी।
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कारगिल युद्ध के दौरान मोदी साहेब के बारे में इस लिंक में पढ़ सकते है। किन्तु पेड टेलीग्राफ ने लेसर गाइडेड बम को स्टोरी में से गायब कर दिया है !! कारगिल के लेसर गाईडेड बम के बारे में अलग से गूगल करेंगे तो आपको जानकारी मिल जायेगी।
Hunt for Modi clues in 1999 trip
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(2.3) मुख्यमंत्री पद पर मोदी साहेब की पैराशूट लेंडिंग :
मुख्यमंत्री / प्रधानमंत्री बनने के 2 रूट होते है
चुनाव जीत कर आना, या
पैराशूट लेंडिंग
गुजरात में तब मोदी साहेब मझौले दर्जे के नेता थे, और मुख्यमंत्री होने के हिसाब से उनका कद काफी छोटा था। चुनावी राजनीती के माध्यम से अभी उनको काफी साल और लगने वाले थे। अत: उन्होंने मनमोहन सिंह जी तरह मुख्यमंत्री पद पर पैराशूट लेंडिंग की दिशा में तैयारी शुरू की। केशुभाई पटेल के झमेले के कारण उन्हें गुजरात से निष्कासित करके दिल्ली भेज दिया गया था, और गुजरात इकाई उन्हें गुजरात से दूर ही रखना चाहती थी।
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अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक पहले ही “कह” चुके थे कि मोदी साहेब में नेतृत्व के गुण है, अत: सीधे मुख्यमंत्री बनने की उनकी संभावनाएं बढ़ गयी थी !! और मोदी साहेब ने अपने 13 वर्षीय कार्यकाल में ऐसा कोई कानून नहीं छापा जिससे अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के एजेंडे को नुकसान हो। इस तरह मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी साहेब पेड मीडिया के प्रायोजको की गुड बुक में आये।
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पेड मीडिया के प्रायोजको का एजेंडा जिन्हें मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी साहेब ने आगे बढ़ाया :
मोदी साहेब ने मुख्यमंत्री रहते हुए मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का कोई क़ानून नहीं छापा, बल्कि और भी नए मंदिरों का अधिग्रहण किया -- Govt in overdrive to take over temples
देशी गाय की नस्ल बचाने और गौ कशी रोकने के लिए कोई क़ानून नहीं छापा।
पुलिस एवं अदालतों को ठीक करने के लिए कोई क़ानून नहीं छापा।
मोदी साहेब ने गुजरात में गणित-विज्ञान का स्तर सुधारने के लिए भी कोई क़ानून नहीं छापा।
उन्होंने गुजरात में अमेरिकी-ब्रिटिश कंपनियों के लिए काफी क्षेत्र खोले
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(2.4) प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी : 2012 में मोदी साहेब की अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के साथ नेगोशिएशन शुरू हुयी थी। अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों का अगला टारगेट ईरान था, अत: उन्हें ऐसा नेता को आगे लाना था, जो भारत में हिन्दू-मुस्लिम अलगाव की हिंसक जमीन तैयार करें।
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तो उन्होंने पेड मीडिया का इस्तेमाल करके उनकी मुस्लिम विरोधी छवि को खड़ा करना शुरू किया। मोदी साहेब को मुस्लिम विरोधी “दिखाने” का काम करने के लिए तब पेड रविश कुमार, पेड करण थापर एवं पेड राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकारो को पेमेंट की जा रही थी। ओवेसी बंधुओ की हेट स्पीच एवं मंच सजाकर टीवी कैमरों के सामने जालीदार टोपी न पहनने के ड्रामे वगेरह इसी स्क्रिप्ट के हिस्सा थे।
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पेड मीडिया ने नकारत्मक रिपोर्टिंग करके मोदी साहेब की “मुस्लिम विरोधी” छवि को निखारा ताकि हिन्दू वोटर को मोदी साहेब की तरफ भेजा जा सके। 2014 में मोदी साहेब स्पष्ट बहुमत लेकर सत्ता में आये, और 5 वर्ष तक तक मोदी साहेब ने अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के एजेंडे को आगे बढ़ाया।
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अपने पहले कार्यकाल में मोदी साहेब ने जिस तरह के फैसले किये थे उससे उनकी लोकप्रियता में गिरावट आई थी, और साफ़ नजर आ रहा था कि उनकी सीटे घटेगी। किन्तु चुनावों से एन पहले यानी 2018 में केंचुआ ने चुपचाप vvpat के पारदर्शी कांच को मिरर ग्लास से बदल दिया। अत: इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि 2019 के चुनावों में उन्हें 30 से 40 सीटो का नुकसान हुआ होगा, किन्तु इसे evm द्वारा मैनेज किया गया !!
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मेरा अनुमान है कि, मोदी साहेब को 2024 में मनमोहन सिंह जी की तरह रिटायर कर दिया जाएगा। उनके नए खिलाडी श्री अमित शाह, श्री योगी जी एवं केजरीवाल है। यदि ईरान अमेरिका के एजेंडे में आता है तो अमित शाह पीएम होंगे। अमित शाह की घड़ी दबाने के लिए श्री योगी जी का इस्तेमाल किया जाएगा। यदि अमित शाह कंट्रोल से बाहर जाते है तो योगी जी पीएम बनेंगे। दोनों ही स्थितियों में ये पेड मीडिया के एजेंडे को 2 गुना स्पीड से आगे बढ़ाएंगे।
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उनके पास दूसरा पैकेट श्री अरविन्द केजरीवाल है। यदि वे केजरीवाल जी को पीएम बनाना तय करते है तो केजरीवाल जी अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के एजेंडे को 4 गुना स्पीड से आगे ले जायेंगे।
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ऊपर जितना भी लिखा गया है उनमे से ज्यादातर तर्क एवं घटनाओं के बारे में निकाले गए मेरे निष्कर्ष पर आधारित है। लेकिन यदि आप इनके कार्यकाल में लिए गए फैसलों को देखे तो साफ़ तौर पर देख सकते है कि मनमोहन सिंह जी जिस दिशा में गाड़ी ले जा रहे थे, मोदी साहेब भी उसी दिशा में गाड़ी दौड़ा रहे है। एक फर्क इतना है कि मोदी साहेब की स्पीड मनमोहन सिंह जी से तेज है !!
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(3) अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों की नीतियों के कुछ मुख्य बिंदु जिन्हें मनमोहन सिंह जी एवं मोदी साहेब ने आगे बढ़ाया :
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(3.1) आर्थिक
(3.1.1) भारत के प्राकृतिक संसाधन, खनिज एवं आवश्यक सेवाओं जैसे मीडिया, पॉवर, बैंकिंग, माइनिंग, रेलवे, संचार, एविएशन के सरकारी उपक्रमों का अधिग्रहण करना।
मनमोहन सिंह जी ने भी देश की संपत्तियां बेची एवं मोदी साहेब भी इन्हें बेहद तेजी से बेच रहे है। जब सारी राष्ट्रिय संपत्तियां बिक जायेगी तो वे डॉलर रिपेट्रीएशन फाइल करेंगे और भारत को बैंक करप्ट करके बचा खुचे संसाधन भी टेक ओवर कर लेंगे। उन्होंने पिछले 20 साल में कितना क्या बेचा है इसके लिए गूगल करें । मैं यहाँ लिखूंगा तो जवाब में 30-40 पेज जोड़ने पड़ेंगे। लेटेस्ट में पॉवर सेक्टर की एक यूनिट (BPCL) बेचने की प्रक्रिया पिछले सप्ताह ही शुरू हुयी है – सरकार ने बीपीसीएल में हिस्सेदारी बेचने के लिए बोलियां आमंत्रित की, पीएसयू नहीं लगा पाएंगी बोली
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(3.1.2) गणित-विज्ञान का आधार तोड़ना।
मनमोहन सिंह जी ने 8 वीं तक फ़ैल न करने का क़ानून छापा था ताकि बच्चे बिना विज्ञान गणित समझे पास होते जाए। मोदी साहेब इससे भी आग गए। उन्होंने 9 वीं एवं 10 वीं की मैथ्स तोड़ने के लिए बेसिक मेथ का विकल्प लेने का क़ानून लागू किया। दिल्ली के 73% अभिभावकों ने इसकी चपेट में आकर अपने बच्चों को बेसिक मैथ्स दिला दी और बच्चे गणित की उत्तर पुस्तिका में सिर्फ अपना नाम लिखकर पास हो गए -- 73% of Class X students in Delhi govt schools opt for basic maths
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(3.1.3) भारत की स्थानीय निर्माण इकाइयों को तोड़ने के लिए अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों को रिग्रेसिव टेक्स सिस्टम चाहिए।
मनमोहन सिंह जी ने जीएसटी लाने की कोशिश की लेकिन सफल न हो पाए। मोदी साहेब ने आते ही जीएसटी डाल दिया !! सेल्स टेक्स, एक्साइज टेक्स, वैट एवं जीएसटी आदि सभी रिग्रेसिव टेक्स है।
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(3.1.4) मनमोहन सिंह जी भी जमीन की कीमतें कम करने के लिए कोई क़ानून नहीं छापा और मोदी साहेब ने भी इसके लिए कोई क़ानून नहीं छापा।
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(3.1.5) तकनिकी उत्पादन तोड़ने के लिए उन्हें अदालतों एवं पुलिस का ऐसा स्ट्रक्चर चाहिए कि पैसा फेंकने वाले का काम हो सके। दोनों ने इन दोनों विषयों को छुआ भी नहीं !!
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(3.2) सामरिक
(3.2.1) भारत की सेना की अमेरिकी-ब्रिटिश-फ्रेंच कम्पनियों पर निर्भरता बढ़ाना।
दोनों ने यथा शक्ति अमेरिकी-ब्रिटिश-फ्रेंच कम्पनियों के हथियार भारत की सेना में इंस्टाल किये और स्वदेशी हथियारों के उत्पादन को सुनिश्चित करने वाले क़ानून छापने से दूरी बनाकर रखी। मनमोहन सिंह जी भारत का परमाणु कार्यक्रम बंद कराया और मोदी साहेब ने इसे फिर से शुरू करने के आदेश निकालने से इनकार किया !!
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(3.2.2) भारत एवं विशेष रूप से कश्मीर में अपने सैन्य अड्डे बनाना।
मोदी साहेब ने इस मामले में अपने कार्यकाल का सबसे खतरनाक कदम उठाया। उन्होंने कोमकासा एग्रीमेंट साइन करके अमेरिकी जनरलो को भारतीय सेना में एक्सेस दी।
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(3.3) धार्मिक :
(3.3.1) अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक भारत में जनसँख्या नियंत्रण क़ानून डालने के खिलाफ रहे है ताकि धार्मिक जनसँख्या का संतुलन बिगाड़ कर देश का फिर एक बार विभाजन किया जा सके है। वे भारत में रह रहे 2 करोड़ अवैध विदेशी निवासियों को निष्काषित करने के भी खिलाफ है, ताकि जरूरत पड़ने पर इन्हें किसी भी समय हथियार भेजकर गृह युद्ध ट्रिगर किया जा सके।
दोनों ने जनसँख्या नियंत्रण करने एवं अवैध बंगलादेशीयों को निष्कासित करने का क़ानून नही छापा। मनमोहन ने हिन्दू-मुस्लिम तनाव बढ़ाने के लिए जो जमीन बनायी थी, मोदी साहेब ने उसमें फसल खड़ी करके काफी अच्छे नतीजे दिए।
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(3.3.2) दोनों ने मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में लेकर उनकी संपत्तियो का अधिग्रहण किया। मनमोहन ने गोल्ड बांड लाकर मंदिरों का सोना उठाने की कोशिश की थी पर ले नहीं पाए। मोदी साहेब ने मंदिरों को बांड बेच कर सोना ले लिया। मिशनरीज को भारत में विस्तार करने की छूट देने के मामले में भी मोदी साहेब ने ज्यादा अच्छा प्रदर्शन किया।
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तो इस तरह की बातें क्यों फैलती है कि मोदी साहेब पेड मीडिया को कंट्रोल कर रहे है ?
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क्योंकि जो लोग मीडिया को वास्तविक रूप से कंट्रोल करते है, वे चाहते कि लोग इस मुगालते में रहे। डेमोक्रेसी में यदि अवाम को यह शुबहा होने लगे कि पीएम धनिक वर्ग की कठपुतली की तरह काम कर रहा है, और उसमें वास्तविक ताकत नहीं है, तो नागरिक उसे वोट नहीं करते। इसीलिए पेड मीडिया के प्रायोजक पेड मीडियाकर्मियों को निर्देश देते है कि वे नागरिको के दिमाग में यह बात डाले कि मीडिया को उनका पीएम शक्तिशाली है और पूरे मुल्क को कंट्रोल कर रहा है। पेड रविश कुमार को इसीलिए “गोदी मीडिया” का नारा लगाने के लिए भुगतान किया जाता है।
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[ 1910 तक धनिक मीडिया को सामने से कंट्रोल करते थे, और इस वजह से अमेरिका में राष्ट्रपति की इज्जत दो कौड़ी की रह गयी थी। अमेरिकी राजनेताओ एवं शासन ने पेड मीडिया के प्रायोजको को कंट्रोल करने की काफी कोशिश की लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाए। जितना ही उन्होंने पेड मीडिया के प्रायोजको से टकराव लिया उतना ही उनकी इज्जत उतरती चली गयी। अत: 1910 में पेड मीडिया के प्रायोजको एवं राजनेताओ में या समझौता हुआ कि पेड मीडिया के प्रायोजक नेपथ्य में चले जायेंगे और राजनेता उन्हें चेस करना छोड़ देंगे। तब से उन्होंने खुद को फ्रेम में से निकाल दिया है। ]
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पेड मीडिया के प्रायोजको एवं अमेरिकी सरकार के बीच खुले संघर्ष के इन विवरणों के लिए John D. Rockefeller and standard oil monopoly पर गूगल करें।
एक आर्टिकल यह भी देख सकते है - Constitutional Rights Foundation
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सलंग्न : 1890 में मुख्यधारा के पेड मीडिया में प्रकाशित कार्टून जो स्टेंडर्ड ऑयल के मुखिया रोकेफेलर को सत्ता के साथ खेलते हुए दिखाता है !! दुनिया के लगभग 40% तेल पर आज भी रोकेफेलर परिवार का एकाधिकार है, और निर्णायक हथियार बनाने वाली कई हथियार कंपनियों में होल्डिंग है।
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