Tuesday, February 25, 2014

राजमोहन गांधी

अमर उजाला से जुड़े पत्रकार दयाशंकर शुक्ल 'सागर' के फेसबुक वॉल से.

राजमोहन गांधी का भारत की नई राजनीति में स्वागत है। मैं उन्हें उतना नहीं जानता जितना उनके पिता देवदास गांधी को जानता हूं। यह भी जानता हूं कि राजमोहन गांधी बहुत प्रेम करने वाले दंपति की संतान हैं। केजरीवाल को जब उन्हें टोपी पहनाते देखा तो देवदास गांधी की प्रेम‌कथा याद आ गई। बहुत दिलचस्प है। और शायद बहुत कम लोगों को पता हो। ये वो दिन थे जब देश में भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी को लेकर तनाव चल रहा था।

बापू अपने छोटे बेटे देवदास और राजा राजगोपालाचारी अपनी छोटी बेटी लक्ष्मी के प्रेम को लेकर चिंतित थे। एक गुजराती वैश्य और दूसरी मद्रासी ब्राह्मण। इस अंतरजातीय विवाह के लिए न गांधीजी तैयार थे और न राजाजी। इस मोर्चे पर भी बापू की लड़ाई जारी थी। उन दिनों गांधी के संग रह रही मीरा ने अपनी डायरी में लिखा- ‘एक तरफ यह महान राजनीतिक नाटक चल रहा था तब एक शांत और गंभीर प्रणय व्यापार भी परदे के पीछे चल रहा था।’

बहुत विचार के बाद तय हुआ कि दोनों के प्रेम की स्थिरता की परीक्षा ली जाए। उपाय ये निकला कि दोनों पांच साल अलग रहें। प्रेम होगा तो जिंदा रहेगा। सिर्फ शारीरिक आकर्षण हुआ तो प्रेम समय के साथ अपने आप विदा हो जाएगा। दोनों युवा प्रेमी इस पांच साल की जुदाई के लिए राजी थे। लक्ष्मी पांच साल के लिए अपने पिता के साथ मद्रास जाने वाली थीं। इससे पहले देवदास की इच्छा थी कि वह उन्हें एक बार देख पाएं उससे बातचीत कर सके। गांधीजी और राजाजी कार्यसमिति की बैठकों में व्यस्त थे। रह गईं बा। उनके खून में अभी भी पुराने ढंग की कट्टरता मौजूद थी। लेकिन देवदास से उन्हें बहुत लगाव था। वह उनका उदास चेहरा देख नहीं सकती थीं।

मीरा ने लिखा - ‘चूंकि देवदास जानते थे कि बा को उन दोनों को अकेले में एक साथ छोड़ना पसंद नहीं होगा। इसलिए उन्हें तरकीब सूझी कि जब तक वायसराय भवन में चर्चाएं चलें तब तक दोनों बापू के खाली बरामदे में बैठें। मुझसे कहा गया कि मैं पास वाले कमरे में रहूं। और दरवाजा खुला रखा जाए। यह प्रबंध बा ने मान लिया। दोनों युवा प्रेमी एक दूसरे के आमने सामने बैठ गए। उनकी पीठें बरामदे के खंभों से लगी थीं।’

खैर जैसा कि जाहिर था ये प्रेमी युगल पांच साल इंतजार नहीं कर सकता था। आखिर में गांधी और राजगोपालचारी इन दोनों को झुकना पड़ा। उन्हें दोनों की शादी करानी पड़ी।

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तब राजमोहन गांधी मद्रास (अब चैन्‍नई) में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक हुआ करते थे। वीपी सिंह चाहते थे कि अमेठी में राजीव गांधी के खिलाफ महात्मा गांधी के वारिस को लड़ाया जाए। वैसे सच पूछिए तो असली गांधी बनाम नकली गांधी का ये आइडिया इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका जी का था। जनता दल से टिकट तय हो गया। संपादक पद से इस्तीफा देकर राजमोहन गांधी पहली बार राजनीति के पथरीले मैदान में उतरे।

आमतौर पर अमेठी का मौसम बहुत रुखा होता है। धूल, अंधड़ और गर्मी ने राजमोहन गांधी को हिला दिया था। पढ़ने लिखने वाले आदमी थे। राजनीति की जमीनी हकीकत से वह कतई नावाकिफ थे। सुबह थोड़ी देर जनसम्पर्क करते फिर शाम को थोड़ी देर के लिए वोट मांगने निकलते थे। अंधेरा होने से पहले अपने होटल के कमरे में लौट आते।

लखनऊ के इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े मेरे एक वरिष्ठ पत्रकार मित्र को हुक्म मिला था कि वह चुनाव के लिए राजमोहन गांधी को 5 लाख रुपया पहुंचा दें। जहिर है ये रुपया दिल्ली से आया था। पत्रकार मित्र अमेठी पहुंचे। राजमोहन गांधी बोले- बाकी सब तो ठीक है पर यहां एक बड़ी दिक्कत है। पत्रकार मित्र ने पूछा क्या? गांधी बोले- यहां कहीं कॉफी नहीं मिलती।

पत्रकार मित्र चौंके।

1989 के उस जमाने में इस इलाके में काफी मिलना सचमुच बहुत मुश्किल काम था। खैर उन्होंने सुल्तानपुर की मार्केट से नेस कैफे का एक डिब्बा मंगवा दिया। नेस कैफे का डिब्बा देखकर गांधीजी भड़क गए। बोले- ओ.. नो...नो.. वो सीड वाली कॉफी चा‌‌हिए। कॉफी बीन्स। हम मद्रास में वही काफी पीते हैं।

खैर लखनऊ के पत्रकार भी कम जुझारू नहीं होते। उन्होंने लखनऊ के मशहूर काफी हाउस से काफी बीन्स मंगाए। तब जाकर राजमोहन गांधी अमेठी से चुनाव लड़ पाए। और चुनाव ऐसे लड़े कि कांग्रेस विरोधी लहर में भी उनकी जमानत जब्त हो गई। राजीव गांधी ने उन्हें तब करीब दो लाख वोटों से हराया था। इसके बाद राजमोहन गांधी का राजनीति से ऐसा मोह भंग हुआ कि पूछिए मत। अब केजरीवाल उन्हें ढूंढ कर फिर लाए हैं। खुदा खैर करे।

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