Wednesday, May 1, 2013

चाहे दुनिया कि जिस अदालत में जाना पडेगा.



“ये नाग हैं, पूरे देश को बेच देंगे, किसी को नहीं छोड़ेंगे.... मैं मरने से नहीं डरती... दुनिया की किसी अदालत में जाना पड़े लेकिन छोडूंगी नहीं..... मेरे पति और जवान बेटे को मेरे सामने मारा था इन्होंने...” ७२ वर्षीय जगदीश कौर जब यह बात कह रही थीं तो मुझे लगा कि शायद अब रो देंगी... लेकिन नहीं, १९८४ के दंगों के बाद से इन्साफ के लिए लड़ते लड़ते उनकी आँखों के आंसू शायद अब सूख चुके हैं ... “मेरे तो पिता स्वतंत्रता सेनानी थे, हम तो कांग्रेसी थे, पक्के वाले... जब ये मेरे हसबैंड को मारने लगे तो मैंने कहा था इनको कि इंदिरा गांधी तो हमारी भी नेता थीं, हमें भी बहुत दुःख हो रहा है... लेकिन वो नहीं माने.. मेरे पति को वहीं मार दिया, बड़ा बेटा भागा तो उसको भी मेरे सामने ही आग लगा दी.... मुझे उसे बचाने भी नहीं दिया... मेरी आँखों के सामने..,”
“ छोटे बच्चों को पड़ोस के पंडित जी के घर छिपाकर मैं पुलिस के पास भागी... वहां दरोगा बोला – अभी तो और मरेंगे.. मैं वापस आई तो ये लोग पंडित को भी मारने पहुँच गए, क्योंकि उसने हमें शरण दी थी..... हम वहां से भाकर वापस अपने घर आ गए.... बच्चों को मैंने छत पर छिपा दिया.. पूरी रात मैं कभी बेटे की बाड़ी के पास बैठती तो कभी हसबैंड की बाड़ी के पास बैठ जाती... अगले दिन मैं फिर पुलिस चौकी गई.. वहां पर तो प्लानिंग बन रही थी... दरोगा, दंगाइयों को कह रहा था कि तुम पहले पहुँचो, हंगामा करो, मैं पीछे से आता हूँ... मैं वहां से भागी... एक पुलिस की गाडी खड़ी थी.. मैं वहां पहुंची...मैंने कहा अब तो बचा लो, अब तो बहुत मर गए... तभी भीड़ वहां आ गई... पीछे से सज्जन कुमार आया, उसने पुलिस की जीप में लगा माइक लेकर आवाज़ लगानी चालू कर दी.. एक भी सिख नहीं बचना चाहिए...फिर वो पुलिस के साथ ही बैठकर चला गया... मैं दौड़कर वापस घर पहुंची...
... घर में दो बच्चे छिपे थे, दो लाशें पड़ी थीं... मैं रोती रही...घर के बाहर मेरे भाई को, उनके बेटों को भी जला दिया था...वहां पहुंची तो पुलिस वाला, उनसे (दंगाइयों से) पूछ रहा था.. कितने मुर्ग भूने आज? .. दो दिन तक .....यहाँ से वहां, भागती रही.. लेकिन कोई ये कहने वाला नहीं मिला कि तेरे बच्चों को हम बचा लेंगे... रात भर गोलियां चलती थीं.... तीसरे दिन पडोसी त्यागी जी आये, डरते डरते ... उनके साथ मिलकर मैंन घर के सोफे को तोड़ा, ... जो थोड़ा बहुत और फर्नीचर था उसको तोड़ा और अपने पति और बेटे के लिए चिता बनाई... दो दिन से पड़ी लाशों का अंतिम संस्कार मैंने अपने घर में ही कर दिया...”
“.............................................. मैं कह रही हूँ कि मैंने देखा और कोर्ट कह रहा है कि सबूत नहीं है...छोडूंगी नहीं मैं इन्हें, चाहे दुनिया कि जिस अदालत में जाना पडेगा...”
मैं और अरविंद, स्तब्ध , सुन रहे थे.... अंत में बस इतना ही कह सके...” आपका जीतना ज़रूरी है, इंसानियत के लिए.. “... इनके हौसले के सामने हर थकावट, हर पराजय छोटी है.. सलाम...

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