बेशर्म काँग्रेस से हारती रहेगी लुंज-पुंज भाजपा?
एक के बाद एक खुलने वाले घोटालों और उन घोटालों में साफ नज़र आ रहे दोषी मंत्रियों से इस्तीफा न लेने के कांग्रेस के फैसले से भारत का मध्यम वर्ग स्तब्ध है। यह अभूतपूर्व स्थिति है। भारत के इतिहास में कभी भी इस स्तर के घोटाले नहीं हुए थे और न ही इस बेशर्मी का किसी राजनैतिक दल ने मुज़ाहिरा किया था। नैतिक दायित्व के आधार पर इस्तीफा देने वाले लालबहादुर शास्त्री से यहां तक का सफर कोई अचानक तय नहीं हुआ है। नैतिकता के इस क्रमशः पतन की देश की जनता साक्षी है, लेकिन भ्रष्ट आचरण से बेशर्मी का यह सफर कोई पुराना नहीं है। पहले इसी कांग्रेस ने नटवर सिंह से लेकर सुबोध कांत सहाय तक से आरोप लगने पर इस्तीफा लिया है। अब ऐसी क्या बात हो गई कि कांग्रेस न केवल मंत्रियों को बनाए रखने को मजबूर है बल्कि सुप्रीम कोर्ट में पेश होने वाली रिपोर्टों से भी छेड़छाड़ पर उतारू हो गई है? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए चंद वर्ष पहले लागू हुए ‘राइट टु इन्फॉर्मेशन’ (आरटीआई) कानून की तरफ नज़र घुमानी होगी।
इस ऐक्ट ने सरकार के फैसलों के पीछे मौजूद दस्तावेजों को सार्वजनिक होने का रास्ता साफ कर दिया। ऐसा होते ही पत्रकार और सिविल सोसाइटी से लेकर आरटीआई कार्यकर्ताओं और ब्लैकमेल करने वालों तक की राह बेहद आसान कर दी। ऊपर से अधिकारियों के आपसी झगड़े और नेताओं की एक-दूसरे को चित करने की चाहत ने रही-सही कसर पूरी कर दी। यहां तक कि अदालतें भी अब सोशल मीडिया के कारण भारी दबाव में हैं। उनके फैसले अब अवमानना के भय से कांपते अखबार मालिकों के इतर बेखौफ आम जनता की स्क्रूटिनी में आ गए हैं। ताबड़तोड़ खुलासों और जूडिशियल ऐक्टिविजम के जंजाल में फंसी इकलौती पार्टी है कांग्रेस। मध्यम वर्ग स्वभाव से ही सत्ता विरोधी होता है और कांग्रेस आजादी के बाद से सतत सत्ता में रहने के कारण स्वाभाविक रूप से इस मध्यमवर्ग के निशाने पर है।
इसके अलावा भी यही मध्यमवर्ग हिंदुत्व के उस नारे की भी गिरफ्त में है जिससे गरीब और उच्च वर्ग का तबका अछूता है। हिंदुत्व का यह मोह इस मध्यमवर्ग को कांग्रेस का प्राकृतिक शत्रु बना देता है। इस मध्यमवर्ग के विशाल बाजार पर आधारित मीडिया इस वर्ग की सोच से अपने को दाएं-बाएं डिगाने का आर्थिक खतरा मोल नहीं ले सकती। खासकर न्यूज चैनल के लिए तो इससे दाएं-बाएं जाना टीआरपी के सफाए, याने खुदकुशी का सीधा रास्ता है। ऐसे में कांग्रेस के नेता विक्टिमाइज्ड महसूस करते हैं। उनका मानना है कि जब सभी दल और नेता भ्रष्ट हैं तो केवल कांग्रेस पर हमला क्यों! इन हालात में फंसी कांग्रेस को चौतरफा विरोध की सुनामी नजर आ रही है। बलात्कार हो या चीन की घुसपैठ या पाकिस्तान की कोई भी हरकत, सब का ठीकरा कांग्रेस के सिर ही फूट रहा है। ऐसे में भ्रष्टाचार के आरोप और घोटालों का खुलासा भी इन चौतरफा हमलों में से ही एक बन कर रह गया है।
कांग्रेस अब यह समझ चुकी है कि मंत्रियों का इस्तीफा ले लेने से भी उसे किसी भी किस्म की कोई राहत मिलने वाली नहीं है। इसके अलावा, अब इतने खुलासे हो चुके हैं कि इस्तीफा लेना शुरू कर दिया तो उसके पास मंत्री ही नहीं बचेंगे। अब तो स्वयं उसके प्रधानमंत्री ही ‘चोरों के ईमानदार सरदार’ कहे जाने लगे हैं। दरअसल मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाना ही कांग्रेस के लिए खुदकुशी का निर्णय साबित हुआ है। सिवाय खुद घूस न खाने के मनमोहन सिंह ने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे उनकी सरकार भ्रष्टाचार के मामले मे नग्न खड़ी नजर न आए। सत्ता के दो केंद्र होने का लाभ उठा कर दलाल, मंत्री, व्यापारी, उद्योगपति को जब जहां मौका मिला उसने वहां से भ्रष्टाचार किया। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में प्रधानमंत्री कार्यालय इसे राजनैतिक सचाई, राजनैतिक फंडिंग का जरिया और सहयोगी दलों से समर्थन की कीमत समझ आंख मूंदे देखता रहा। मनमोहन सिंह ही नहीं सोनिया गांधी भी पूरी तरह से अक्षम साबित हुई हैं। वह किस तरह की खुली लूट हो रही है, यह भांपने और इस लूट से उनकी पार्टी की क्या दुर्गत होगी यह समझने में पूरी तरह नाकाम रही हैं।
मीडिया में पेश छवि के विपरीत वे कांग्रेस के मुट्ठी भर नेताओं पर पूरी तरह निर्भर एक अक्षम राजनैतिक शख्सियत से इतर कुछ भी नहीं, जिनका कुल योगदान यही है कि वह इस पार्टी को एकजुट रख सकती हैं। अब हाल यह है कि वे मनमोहन सिंह को न निगल सकती हैं और न ही उगल सकती हैं। प्रधानमंत्री पद से हटते ही मनमोहन सिंह पर इन सारे घोटालों का नजला गिरना लगभग तय है। उनके फंसते ही कांग्रेस पार्टी का एकमात्र बचाव ईमानदार प्रधानमंत्री भी खत्म हो जाएगा। लेकिन मध्यमवर्ग का जोर का बस यहीं तक चलता है। तुरुप का इक्का फिर भी कांग्रेस के ही हाथ में है। कारण यह कि कांग्रेस का वोट बैंक धर्मनिरपेक्षता का है, गरीब तबके से है और कांग्रेसी नेताओं के अपने ही वोट बैंक हैं। सबसे बड़ी राहत कांग्रेस के लिए यह है कि मुस्लिम वोट बैंक अगर चुनाव में कांग्रेस से दूर भी चला जाए तो जाएगा कांग्रेस के सहयोगी और भाजपा विरोधी दलों के पास ही।
ऐसे में कांग्रेस को हराने के लिए भाजपा को अटल बिहारी जैसे करिश्माई शख्सियत की जरूरत होगी जो अब संभव नजर नहीं आ रहा। नरेन्द्र मोदी को ठिकाने लगाने का पुख्ता उपाय संघ और भाजपा नेतृत्व कर चुका है। कांग्रेस का मुकाबला उसी लुंज-पुंज तरीके से मैदान में उतरी भाजपा से होगा। कांग्रेस के इतर भाजपा के नेताओं का निजी वोट बैंक नहीं होता है। वे भाजपा के वोट बैंक और कांग्रेस विरोधी मतों के सहारे ही अपनी नैया पार लगाते हैं। गरीब तबके के लिए कांग्रेस ने कई क्रांतिकारी योजनाएं शुरू की हैं जिनका लाभ उसे निश्चित ही चुनाव में मिलेगा। ऐसे में बुरी से बुरी स्थिति में भी कांग्रेस सौ से ऊपर सीटें लेकर तीसरे मोर्चे की सरकार को बाहर से समर्थन देने की स्थिति में होगी ही। दो-तीन साल के लिए तीसरे मोर्चे की सरकार न केवल लोगों का ध्यान कांग्रेस के भ्रष्टाचार से हटाने के लिए पर्याप्त होगी बल्कि इस बीच अपने कार्यकाल के घोटालों से भी निपटने का उसे अवसर मिल जाएगा। इसलिए, कांग्रेस के लिए बेशर्मी अपना लेना ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है।
ऐसा कर वह बिना संगठन और संतुलन को कमजोर किए अपना ध्यान आने वाले चुनाव की तैयारी में लगा सकती है और सत्ता बल, धनबल और वोटबैंक पॉलिटिक्स के सहारे अपनी नैया पार लगने की उम्मीद कायम रख सकती है। मध्यमवर्ग को भी देर-सवेर कड़वा घूंट पीना ही होगा। आखिर कांग्रेस के हटने के बाद भी जो सरकार आएगी वह भी तो लगभग इतनी ही भ्रष्ट होगी। ऐसे में आरटीआई, सोशल मीडिया के नए समय में पैसा खाने के सुरक्षित तरीके खोज निकालने के लिए नेताओं को मंथन करने की जरूरत है ताकि मध्यम वर्ग की मुखरता की इस नई शक्ति के ड्रैगन को विकराल रूप धारण करने की हद तक पहुंचने से रोका जा सके।-
एक के बाद एक खुलने वाले घोटालों और उन घोटालों में साफ नज़र आ रहे दोषी मंत्रियों से इस्तीफा न लेने के कांग्रेस के फैसले से भारत का मध्यम वर्ग स्तब्ध है। यह अभूतपूर्व स्थिति है। भारत के इतिहास में कभी भी इस स्तर के घोटाले नहीं हुए थे और न ही इस बेशर्मी का किसी राजनैतिक दल ने मुज़ाहिरा किया था। नैतिक दायित्व के आधार पर इस्तीफा देने वाले लालबहादुर शास्त्री से यहां तक का सफर कोई अचानक तय नहीं हुआ है। नैतिकता के इस क्रमशः पतन की देश की जनता साक्षी है, लेकिन भ्रष्ट आचरण से बेशर्मी का यह सफर कोई पुराना नहीं है। पहले इसी कांग्रेस ने नटवर सिंह से लेकर सुबोध कांत सहाय तक से आरोप लगने पर इस्तीफा लिया है। अब ऐसी क्या बात हो गई कि कांग्रेस न केवल मंत्रियों को बनाए रखने को मजबूर है बल्कि सुप्रीम कोर्ट में पेश होने वाली रिपोर्टों से भी छेड़छाड़ पर उतारू हो गई है? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए चंद वर्ष पहले लागू हुए ‘राइट टु इन्फॉर्मेशन’ (आरटीआई) कानून की तरफ नज़र घुमानी होगी।
इस ऐक्ट ने सरकार के फैसलों के पीछे मौजूद दस्तावेजों को सार्वजनिक होने का रास्ता साफ कर दिया। ऐसा होते ही पत्रकार और सिविल सोसाइटी से लेकर आरटीआई कार्यकर्ताओं और ब्लैकमेल करने वालों तक की राह बेहद आसान कर दी। ऊपर से अधिकारियों के आपसी झगड़े और नेताओं की एक-दूसरे को चित करने की चाहत ने रही-सही कसर पूरी कर दी। यहां तक कि अदालतें भी अब सोशल मीडिया के कारण भारी दबाव में हैं। उनके फैसले अब अवमानना के भय से कांपते अखबार मालिकों के इतर बेखौफ आम जनता की स्क्रूटिनी में आ गए हैं। ताबड़तोड़ खुलासों और जूडिशियल ऐक्टिविजम के जंजाल में फंसी इकलौती पार्टी है कांग्रेस। मध्यम वर्ग स्वभाव से ही सत्ता विरोधी होता है और कांग्रेस आजादी के बाद से सतत सत्ता में रहने के कारण स्वाभाविक रूप से इस मध्यमवर्ग के निशाने पर है।
इसके अलावा भी यही मध्यमवर्ग हिंदुत्व के उस नारे की भी गिरफ्त में है जिससे गरीब और उच्च वर्ग का तबका अछूता है। हिंदुत्व का यह मोह इस मध्यमवर्ग को कांग्रेस का प्राकृतिक शत्रु बना देता है। इस मध्यमवर्ग के विशाल बाजार पर आधारित मीडिया इस वर्ग की सोच से अपने को दाएं-बाएं डिगाने का आर्थिक खतरा मोल नहीं ले सकती। खासकर न्यूज चैनल के लिए तो इससे दाएं-बाएं जाना टीआरपी के सफाए, याने खुदकुशी का सीधा रास्ता है। ऐसे में कांग्रेस के नेता विक्टिमाइज्ड महसूस करते हैं। उनका मानना है कि जब सभी दल और नेता भ्रष्ट हैं तो केवल कांग्रेस पर हमला क्यों! इन हालात में फंसी कांग्रेस को चौतरफा विरोध की सुनामी नजर आ रही है। बलात्कार हो या चीन की घुसपैठ या पाकिस्तान की कोई भी हरकत, सब का ठीकरा कांग्रेस के सिर ही फूट रहा है। ऐसे में भ्रष्टाचार के आरोप और घोटालों का खुलासा भी इन चौतरफा हमलों में से ही एक बन कर रह गया है।
कांग्रेस अब यह समझ चुकी है कि मंत्रियों का इस्तीफा ले लेने से भी उसे किसी भी किस्म की कोई राहत मिलने वाली नहीं है। इसके अलावा, अब इतने खुलासे हो चुके हैं कि इस्तीफा लेना शुरू कर दिया तो उसके पास मंत्री ही नहीं बचेंगे। अब तो स्वयं उसके प्रधानमंत्री ही ‘चोरों के ईमानदार सरदार’ कहे जाने लगे हैं। दरअसल मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाना ही कांग्रेस के लिए खुदकुशी का निर्णय साबित हुआ है। सिवाय खुद घूस न खाने के मनमोहन सिंह ने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे उनकी सरकार भ्रष्टाचार के मामले मे नग्न खड़ी नजर न आए। सत्ता के दो केंद्र होने का लाभ उठा कर दलाल, मंत्री, व्यापारी, उद्योगपति को जब जहां मौका मिला उसने वहां से भ्रष्टाचार किया। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में प्रधानमंत्री कार्यालय इसे राजनैतिक सचाई, राजनैतिक फंडिंग का जरिया और सहयोगी दलों से समर्थन की कीमत समझ आंख मूंदे देखता रहा। मनमोहन सिंह ही नहीं सोनिया गांधी भी पूरी तरह से अक्षम साबित हुई हैं। वह किस तरह की खुली लूट हो रही है, यह भांपने और इस लूट से उनकी पार्टी की क्या दुर्गत होगी यह समझने में पूरी तरह नाकाम रही हैं।
मीडिया में पेश छवि के विपरीत वे कांग्रेस के मुट्ठी भर नेताओं पर पूरी तरह निर्भर एक अक्षम राजनैतिक शख्सियत से इतर कुछ भी नहीं, जिनका कुल योगदान यही है कि वह इस पार्टी को एकजुट रख सकती हैं। अब हाल यह है कि वे मनमोहन सिंह को न निगल सकती हैं और न ही उगल सकती हैं। प्रधानमंत्री पद से हटते ही मनमोहन सिंह पर इन सारे घोटालों का नजला गिरना लगभग तय है। उनके फंसते ही कांग्रेस पार्टी का एकमात्र बचाव ईमानदार प्रधानमंत्री भी खत्म हो जाएगा। लेकिन मध्यमवर्ग का जोर का बस यहीं तक चलता है। तुरुप का इक्का फिर भी कांग्रेस के ही हाथ में है। कारण यह कि कांग्रेस का वोट बैंक धर्मनिरपेक्षता का है, गरीब तबके से है और कांग्रेसी नेताओं के अपने ही वोट बैंक हैं। सबसे बड़ी राहत कांग्रेस के लिए यह है कि मुस्लिम वोट बैंक अगर चुनाव में कांग्रेस से दूर भी चला जाए तो जाएगा कांग्रेस के सहयोगी और भाजपा विरोधी दलों के पास ही।
ऐसे में कांग्रेस को हराने के लिए भाजपा को अटल बिहारी जैसे करिश्माई शख्सियत की जरूरत होगी जो अब संभव नजर नहीं आ रहा। नरेन्द्र मोदी को ठिकाने लगाने का पुख्ता उपाय संघ और भाजपा नेतृत्व कर चुका है। कांग्रेस का मुकाबला उसी लुंज-पुंज तरीके से मैदान में उतरी भाजपा से होगा। कांग्रेस के इतर भाजपा के नेताओं का निजी वोट बैंक नहीं होता है। वे भाजपा के वोट बैंक और कांग्रेस विरोधी मतों के सहारे ही अपनी नैया पार लगाते हैं। गरीब तबके के लिए कांग्रेस ने कई क्रांतिकारी योजनाएं शुरू की हैं जिनका लाभ उसे निश्चित ही चुनाव में मिलेगा। ऐसे में बुरी से बुरी स्थिति में भी कांग्रेस सौ से ऊपर सीटें लेकर तीसरे मोर्चे की सरकार को बाहर से समर्थन देने की स्थिति में होगी ही। दो-तीन साल के लिए तीसरे मोर्चे की सरकार न केवल लोगों का ध्यान कांग्रेस के भ्रष्टाचार से हटाने के लिए पर्याप्त होगी बल्कि इस बीच अपने कार्यकाल के घोटालों से भी निपटने का उसे अवसर मिल जाएगा। इसलिए, कांग्रेस के लिए बेशर्मी अपना लेना ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है।
ऐसा कर वह बिना संगठन और संतुलन को कमजोर किए अपना ध्यान आने वाले चुनाव की तैयारी में लगा सकती है और सत्ता बल, धनबल और वोटबैंक पॉलिटिक्स के सहारे अपनी नैया पार लगने की उम्मीद कायम रख सकती है। मध्यमवर्ग को भी देर-सवेर कड़वा घूंट पीना ही होगा। आखिर कांग्रेस के हटने के बाद भी जो सरकार आएगी वह भी तो लगभग इतनी ही भ्रष्ट होगी। ऐसे में आरटीआई, सोशल मीडिया के नए समय में पैसा खाने के सुरक्षित तरीके खोज निकालने के लिए नेताओं को मंथन करने की जरूरत है ताकि मध्यम वर्ग की मुखरता की इस नई शक्ति के ड्रैगन को विकराल रूप धारण करने की हद तक पहुंचने से रोका जा सके।-
Raman Bharti in Politics | May 09
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