सोनिया कांग्रेस का ही दूसरा रूप है आआपा
अब कारण और रणनीति चाहे जो भी रही होे ह्यआम आदमी पार्टी ह्ण उस स्थिति में पहुंच गई है कि इसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। यदि ऐसा किया गया तो वह शतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन देने के समान होगा। फिलहाल 'आप' को लेकर हड़बड़ी में जो कहा और लिखा जा रहा है वह रक्षात्मक ज्यादा लगता है और गंभीर विवेचननुमा कम, लहजा कुछ-कुछ सफाई देने जैसा है।
'आप' अपने नेता अरविंद केजरीवाल की सादगी को आगे करती है तो दूसरे राजनैतिक दल भी भागदौड़ करके अपने स्टोर में से कुछ उदहारण ला कर उसका मुकाबला करने का प्रयास करते दिखाई देते हैं। कोई भाग कर गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पारिकर को दिखा रहा है, तो कोई हड़बड़ी में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार को लेकर उपस्थिति हुआ है। जिनकी इतिहास में रुचि है वे कभी लोकसभा के अध्यक्ष रहे रविराय को ओडिशा के किसी कोने से ढूंढ लाए हैं। जिनकी और भी पीछे जाने की हिम्मत है वे गृहमंत्री रह चुके और अब परलोक जा चुके इंद्रजीत गुप्ता को याद कर रहे हैं। यह एक प्रकार से आम आदमी पार्टी की चाल में ही फंसने जैसा है। आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल भी चाहते हैं कि सारी बहस इन्हीं सतही मुद्दों पर घूमती रहे ताकि असली गंभीर मुद्दों से बचा जा सके।
गंभीर और गहरे दूरगामी मुददों पर भारत की राजनीति में बहस ना हो इसको लेकर देश में वातावरण कुछ देशी-विदेशी शक्तियों ने पिछले दो दशकों से ही बनाना शुरू कर दिया था। मीडिया में और विश्वविद्यालयों में यह बहस अच्छा प्रशासन बनाम विचारधाराह के नाम पर चलाई गई थी। इस आंदोलन में यह स्थापित करने की कोशिश की गई थी कि हिंदुस्थान की तरक्की के लिए पहली प्राथमिकता अच्छे प्रशासन की है विचारधारा का राजनीति में ज्यादा महत्व नहीं है। मीडिया की सहायता से सब जगह यह शोर मचाया जाने लगा कि विचारधारा महंगा शौक है जिसे हिंदुस्थान झेल नहीं सकता। हिंदुस्थान को तो अच्छा प्रशासन चाहिए इसी आंदोलन में से भ्रष्टाचार समाप्त करने के स्वर उभरने लगे थे और इसी आंदोलन में देशवासियों में राजनैतिक नेतृत्व और संवैधानिक व्यवस्थाओं के प्रति अनास्था का वातावरण तैयार किया। इस आंदोलन को चलाने वाले लोगों ने बहुत शातिराना अंदाज से यह बात गोल कर दी कि अच्छा प्रशासन या भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की कल्पना एकांत में नहीं की जा सकती। आंदोलन चलाने वालों ने बहुत ही शातिर तरीके से अच्छे प्रशासन अथवा भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन को विचारधारा के खिलाफ खड़ा कर दिया। ऐसा माहौल बनाया गया मानो विचारधारा और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन एक दूसरे के विरोधी हों और हिन्दुस्थान को यदि आगे बढ़ना है तो उसे विचारधारा को त्यागना होगा। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है। सत्ता का वैचारिक आधार कोई भी, साम्यवादी, मिश्रित अर्थव्यवस्था, एकात्म मानवतावादी, पूंजीवादी या फिर माओवादी ही क्यों न हो अच्छा प्रशासन तो सभी वैचारिक व्यवस्थाओं के लिए अनिवार्य शर्त है।
मुख्य प्रश्न यह है कि हिन्दुस्थान में पिछले दो दशकों में हड़बड़ी में सुप्रशासन और विचारधारा को एक दूसरे के खिलाफ सिद्घ करने का आंदोलन चलने की जरूरत क्यों पड़ी ? भारत में कुल मिलाकर तीन वैचारिक प्रतिष्ठान आसानी से चिन्हित किए जा सकते हैं। विभिन्न साम्यवादी दलों के नेतृत्व में साम्यवादी वैचारिक मंडल और संघ परिवार के नेतृत्व में एकात्ममानव दर्शन पर आधारित भारतीय वैचारिक मंडल। तीसरा खेमा, जिसे सही अर्थो में वैचारिक मंडल नहीं कहा जा सकता, सोनिया गांधी की पार्टी का है जिसमें सत्ता सुख भोगने के लालच में विभिन्न विचारधाराओं के वाहक अपनी सुविधा अनुसार एक छतरी के नीचे एकत्रित हैं। इस खेमे में नक्सलवाद से लेकर हिन्दुओं की चर्चा करने वालों तक, विशुद्घ पूंजीवाद से लेकर शत-प्रतिशत राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था तक के पक्षधर भी हैं। इसमें अभी भी मुसलमानों को अलग राष्ट्र मानने के पक्षधर हैं और ईसाई स्थान का सपना संजोने वाले भी ही इस खेमे में शामिल हैं। बाबरी ढांचे के टूटने पर खून की नदियां बहाने की धमकियां देने से लेकर शयनगृह में छिप कर ताली बजाने वाले भी इसी खेमे में है। अमेरिका के आगे दंडवत करने वाले भी इसी खेमे में है और उसे सबक सिखाने वाले भी इसी खेमे में है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस खेमे की न कोई अपनी पहचान है और न ही कोई प्रतिबद्घता। भारत की राजनीति में जिन देशी-विदेशी शक्तियों के अपने निहित स्वार्थ हैं उनके लिए सोनिया गांधी की पार्टी जैसा खेमा ही सबसे ज्यादा अनुकू ल होता है। सोवियत रूस के पतन के बाद अमरीका के लिए साम्यवादी वैचारिक मंडलों की चुनौती एक प्रकारी से समाप्त हो गई थी। भारत में इसकी शक्ति पहले भी पश्चिमी बंगाल में ही सिमट कर रह गई थी और इसे निर्णायक चोट ममता बनर्जी ने पहुंचा ही दी थी। इसलिए इतना स्पष्ट ही था कि आने वाले समय में भारत की राजनीति में मुख्य दंगल संघ परिवार के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों के भारतीय वैचारिक मंडल और सोनिया गांधी की पार्टी और उसके सहयोगी खेमे में होने वाला है।
मान लीजिए सोनिया गांधी पार्टी का खेमा हार जाता है तो भारत की सत्ता के केंद्र में भारतीय वैचारिक प्रतिष्ठान स्थापित हो सकता है, और यदि उसने अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल के प्रयोगों से सबक हासिल कर लिया तो वह लंबे समय तक इस केंद्र में रह भी सकता है। सैम्युअल हंटिंगटन ने जिन सभ्यताओं के संघर्ष की भविष्यवाणी की है, उसके अनुसार भारत में राष्ट्रवादी शक्तियों के केंद्र में आ जाने से भारतीय संस्कृति और सभ्यता एक बार फिर विश्व में अपना सम्मानपूर्वक स्थान ग्रहण कर सकती है। इसलिए भारत में रुचि लेने वाली देशी- विदेशी शक्तियों को हर हालत में कांग्रेस-1 के पराजित हो जाने पर कांग्रेस-2 को स्थापित करने के प्रयास करने ही थे। लगता है कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस-1 के स्थान पर कांग्रेस-2 के रूप में ही आगे बढ़ाई जा रही है। यही कारण है कि अरविंद केजरीवाल उन सब प्रश्नों पर बात करने से बचते हैं जो इस देश के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हैं। आश्चर्य है कि जब कभी इन मुददों पर विवशता में बोलते भी हैं तो उनके विचारों में और कांग्रेस-1 के विचारों में कोई मौलिक अंतर दिखाई नहीं देता। कश्मीर में जनमत संग्रह कराने के प्रश्न पर जो बात पिछले पांच दशकों से कांग्रेस कह रही है, पाकिस्तान कह रहा है, आतंकवादी कह रहे हैं वही बात इस पार्टी के प्रशांत भूषण कह रहे हैं। अनुच्छेद 370 पर आम आदमी पार्टी की वही राय है जो कांग्रेस (आई) की है। आतंकवाद पर भारत और माओवाद प्रभावित राज्यों से सेना को हटाने या फिर वहां उनकी शक्ति को अत्यंत क्षीण करने की बात कांग्रेस-1 भी कह रही है और आम आदमी पार्टी भी कह रही है। कांग्रेस (आई) भी यह मान कर चलती है कि इस देश में मुसलमानों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है और उनके लिए अलग से कानून बनाया जाना चाहिए। मोटे तौर पर ह्यआम आदमी पार्टी ह्णभी यही कहती है। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह भी यह कहते हैं कि इस देश में जहां भी मुस्लिम आतंकवादी मारा जाता है वह फर्जी एनकांउटर होता है। केजरीवाल की पार्टी का भी यही मत है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मामले में आम आदमी पार्टी को भी यही लगता है कि उनका ऑडिट कर देने से समस्या हल हो जाएगी।
ये केवल कुछ उदाहरण हैं । मोटे तौर पर नीति के मामले में सोनिया गांधी की पार्टी और आम आदमी पार्टी में कोई अंतर नहीं है। बहस केवल इस बात को लेकर हो रही है कि इनके प्रशासन में भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा है' जब हम आएंगे भ्रष्टाचार को खत्म करने की कोशिश करेंगे। जहां तक वैचारिक नीति का प्रश्न है 'आप' भी कांग्रेस का ही प्रतिरूप है इसलिए जिन पूंजीवादी प्रतिष्ठानों को सोनिया कांग्रेस के गिरने का खतरा दिखाई देता है उन्होंने तुरंत 'आप' पर दांव लगाना शुरू कर दिया है क्योंकि उन्हे लगता है'आप' से वैचारिक नीतिगत निरंतरता बनी रहेगी। इसलिए देशी-विदेशी शक्तियों के गर्हित हित प्रभावित नहीं होंगे। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में यदि राष्ट्रवादी शक्तियां सत्ता में आ जाती हैं तो सभ्यताओं के संघर्ष में एक ऐसी सभ्यता फिर से अंगड़ाई लेने लगेगी जिसे अभी तक विश्व शक्तियों ने हाशिए पर धकेल रखा है।
अब कारण और रणनीति चाहे जो भी रही होे ह्यआम आदमी पार्टी ह्ण उस स्थिति में पहुंच गई है कि इसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। यदि ऐसा किया गया तो वह शतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन देने के समान होगा। फिलहाल 'आप' को लेकर हड़बड़ी में जो कहा और लिखा जा रहा है वह रक्षात्मक ज्यादा लगता है और गंभीर विवेचननुमा कम, लहजा कुछ-कुछ सफाई देने जैसा है।
'आप' अपने नेता अरविंद केजरीवाल की सादगी को आगे करती है तो दूसरे राजनैतिक दल भी भागदौड़ करके अपने स्टोर में से कुछ उदहारण ला कर उसका मुकाबला करने का प्रयास करते दिखाई देते हैं। कोई भाग कर गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पारिकर को दिखा रहा है, तो कोई हड़बड़ी में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार को लेकर उपस्थिति हुआ है। जिनकी इतिहास में रुचि है वे कभी लोकसभा के अध्यक्ष रहे रविराय को ओडिशा के किसी कोने से ढूंढ लाए हैं। जिनकी और भी पीछे जाने की हिम्मत है वे गृहमंत्री रह चुके और अब परलोक जा चुके इंद्रजीत गुप्ता को याद कर रहे हैं। यह एक प्रकार से आम आदमी पार्टी की चाल में ही फंसने जैसा है। आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल भी चाहते हैं कि सारी बहस इन्हीं सतही मुद्दों पर घूमती रहे ताकि असली गंभीर मुद्दों से बचा जा सके।
गंभीर और गहरे दूरगामी मुददों पर भारत की राजनीति में बहस ना हो इसको लेकर देश में वातावरण कुछ देशी-विदेशी शक्तियों ने पिछले दो दशकों से ही बनाना शुरू कर दिया था। मीडिया में और विश्वविद्यालयों में यह बहस अच्छा प्रशासन बनाम विचारधाराह के नाम पर चलाई गई थी। इस आंदोलन में यह स्थापित करने की कोशिश की गई थी कि हिंदुस्थान की तरक्की के लिए पहली प्राथमिकता अच्छे प्रशासन की है विचारधारा का राजनीति में ज्यादा महत्व नहीं है। मीडिया की सहायता से सब जगह यह शोर मचाया जाने लगा कि विचारधारा महंगा शौक है जिसे हिंदुस्थान झेल नहीं सकता। हिंदुस्थान को तो अच्छा प्रशासन चाहिए इसी आंदोलन में से भ्रष्टाचार समाप्त करने के स्वर उभरने लगे थे और इसी आंदोलन में देशवासियों में राजनैतिक नेतृत्व और संवैधानिक व्यवस्थाओं के प्रति अनास्था का वातावरण तैयार किया। इस आंदोलन को चलाने वाले लोगों ने बहुत शातिराना अंदाज से यह बात गोल कर दी कि अच्छा प्रशासन या भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की कल्पना एकांत में नहीं की जा सकती। आंदोलन चलाने वालों ने बहुत ही शातिर तरीके से अच्छे प्रशासन अथवा भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन को विचारधारा के खिलाफ खड़ा कर दिया। ऐसा माहौल बनाया गया मानो विचारधारा और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन एक दूसरे के विरोधी हों और हिन्दुस्थान को यदि आगे बढ़ना है तो उसे विचारधारा को त्यागना होगा। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है। सत्ता का वैचारिक आधार कोई भी, साम्यवादी, मिश्रित अर्थव्यवस्था, एकात्म मानवतावादी, पूंजीवादी या फिर माओवादी ही क्यों न हो अच्छा प्रशासन तो सभी वैचारिक व्यवस्थाओं के लिए अनिवार्य शर्त है।
मुख्य प्रश्न यह है कि हिन्दुस्थान में पिछले दो दशकों में हड़बड़ी में सुप्रशासन और विचारधारा को एक दूसरे के खिलाफ सिद्घ करने का आंदोलन चलने की जरूरत क्यों पड़ी ? भारत में कुल मिलाकर तीन वैचारिक प्रतिष्ठान आसानी से चिन्हित किए जा सकते हैं। विभिन्न साम्यवादी दलों के नेतृत्व में साम्यवादी वैचारिक मंडल और संघ परिवार के नेतृत्व में एकात्ममानव दर्शन पर आधारित भारतीय वैचारिक मंडल। तीसरा खेमा, जिसे सही अर्थो में वैचारिक मंडल नहीं कहा जा सकता, सोनिया गांधी की पार्टी का है जिसमें सत्ता सुख भोगने के लालच में विभिन्न विचारधाराओं के वाहक अपनी सुविधा अनुसार एक छतरी के नीचे एकत्रित हैं। इस खेमे में नक्सलवाद से लेकर हिन्दुओं की चर्चा करने वालों तक, विशुद्घ पूंजीवाद से लेकर शत-प्रतिशत राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था तक के पक्षधर भी हैं। इसमें अभी भी मुसलमानों को अलग राष्ट्र मानने के पक्षधर हैं और ईसाई स्थान का सपना संजोने वाले भी ही इस खेमे में शामिल हैं। बाबरी ढांचे के टूटने पर खून की नदियां बहाने की धमकियां देने से लेकर शयनगृह में छिप कर ताली बजाने वाले भी इसी खेमे में है। अमेरिका के आगे दंडवत करने वाले भी इसी खेमे में है और उसे सबक सिखाने वाले भी इसी खेमे में है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस खेमे की न कोई अपनी पहचान है और न ही कोई प्रतिबद्घता। भारत की राजनीति में जिन देशी-विदेशी शक्तियों के अपने निहित स्वार्थ हैं उनके लिए सोनिया गांधी की पार्टी जैसा खेमा ही सबसे ज्यादा अनुकू ल होता है। सोवियत रूस के पतन के बाद अमरीका के लिए साम्यवादी वैचारिक मंडलों की चुनौती एक प्रकारी से समाप्त हो गई थी। भारत में इसकी शक्ति पहले भी पश्चिमी बंगाल में ही सिमट कर रह गई थी और इसे निर्णायक चोट ममता बनर्जी ने पहुंचा ही दी थी। इसलिए इतना स्पष्ट ही था कि आने वाले समय में भारत की राजनीति में मुख्य दंगल संघ परिवार के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों के भारतीय वैचारिक मंडल और सोनिया गांधी की पार्टी और उसके सहयोगी खेमे में होने वाला है।
मान लीजिए सोनिया गांधी पार्टी का खेमा हार जाता है तो भारत की सत्ता के केंद्र में भारतीय वैचारिक प्रतिष्ठान स्थापित हो सकता है, और यदि उसने अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल के प्रयोगों से सबक हासिल कर लिया तो वह लंबे समय तक इस केंद्र में रह भी सकता है। सैम्युअल हंटिंगटन ने जिन सभ्यताओं के संघर्ष की भविष्यवाणी की है, उसके अनुसार भारत में राष्ट्रवादी शक्तियों के केंद्र में आ जाने से भारतीय संस्कृति और सभ्यता एक बार फिर विश्व में अपना सम्मानपूर्वक स्थान ग्रहण कर सकती है। इसलिए भारत में रुचि लेने वाली देशी- विदेशी शक्तियों को हर हालत में कांग्रेस-1 के पराजित हो जाने पर कांग्रेस-2 को स्थापित करने के प्रयास करने ही थे। लगता है कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस-1 के स्थान पर कांग्रेस-2 के रूप में ही आगे बढ़ाई जा रही है। यही कारण है कि अरविंद केजरीवाल उन सब प्रश्नों पर बात करने से बचते हैं जो इस देश के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हैं। आश्चर्य है कि जब कभी इन मुददों पर विवशता में बोलते भी हैं तो उनके विचारों में और कांग्रेस-1 के विचारों में कोई मौलिक अंतर दिखाई नहीं देता। कश्मीर में जनमत संग्रह कराने के प्रश्न पर जो बात पिछले पांच दशकों से कांग्रेस कह रही है, पाकिस्तान कह रहा है, आतंकवादी कह रहे हैं वही बात इस पार्टी के प्रशांत भूषण कह रहे हैं। अनुच्छेद 370 पर आम आदमी पार्टी की वही राय है जो कांग्रेस (आई) की है। आतंकवाद पर भारत और माओवाद प्रभावित राज्यों से सेना को हटाने या फिर वहां उनकी शक्ति को अत्यंत क्षीण करने की बात कांग्रेस-1 भी कह रही है और आम आदमी पार्टी भी कह रही है। कांग्रेस (आई) भी यह मान कर चलती है कि इस देश में मुसलमानों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है और उनके लिए अलग से कानून बनाया जाना चाहिए। मोटे तौर पर ह्यआम आदमी पार्टी ह्णभी यही कहती है। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह भी यह कहते हैं कि इस देश में जहां भी मुस्लिम आतंकवादी मारा जाता है वह फर्जी एनकांउटर होता है। केजरीवाल की पार्टी का भी यही मत है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मामले में आम आदमी पार्टी को भी यही लगता है कि उनका ऑडिट कर देने से समस्या हल हो जाएगी।
ये केवल कुछ उदाहरण हैं । मोटे तौर पर नीति के मामले में सोनिया गांधी की पार्टी और आम आदमी पार्टी में कोई अंतर नहीं है। बहस केवल इस बात को लेकर हो रही है कि इनके प्रशासन में भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा है' जब हम आएंगे भ्रष्टाचार को खत्म करने की कोशिश करेंगे। जहां तक वैचारिक नीति का प्रश्न है 'आप' भी कांग्रेस का ही प्रतिरूप है इसलिए जिन पूंजीवादी प्रतिष्ठानों को सोनिया कांग्रेस के गिरने का खतरा दिखाई देता है उन्होंने तुरंत 'आप' पर दांव लगाना शुरू कर दिया है क्योंकि उन्हे लगता है'आप' से वैचारिक नीतिगत निरंतरता बनी रहेगी। इसलिए देशी-विदेशी शक्तियों के गर्हित हित प्रभावित नहीं होंगे। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में यदि राष्ट्रवादी शक्तियां सत्ता में आ जाती हैं तो सभ्यताओं के संघर्ष में एक ऐसी सभ्यता फिर से अंगड़ाई लेने लगेगी जिसे अभी तक विश्व शक्तियों ने हाशिए पर धकेल रखा है।
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