Thursday, December 12, 2013

महर्षि भारद्धाज

2005 में पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जब इलाहाबाद आये तो महर्षि भारद्धाज आश्रम देखने की इच्छा उन्होंने प्रगट की और उन्होंने बताया कि महर्षि भारद्धाज ने सर्वप्रथम विमान शास्त्र की रचना की थी। महाकुंभ के अवसर पर देश-देशांतर के सभी विद्धान प्रयाग आते थे और इसी भारद्धाज आश्रम में महीने दो महीने रहकर अपने-अपने शोध और खोज पर चर्चा करते थे जिससे उनको जनकल्याण में लगाया जा सके। सोशल नेटवर्किंग साईट पर जब किसी ने अरब के किसी व्यक्ति का नाम देते हुए कहा कि सबसे पहले इन्होंने विमान की खोज की तो आश्‍चर्य हुआ।
प्राचीन काल में वेद, मंत्र, उपनिषद किसने लिखे ? उन भारतीयों ने अपने से अधिक अपनी कृति से प्रेम किया होगा यही कारण है कि अपना नाम प्रकाशित नहीं किया जबकि आप एक छोटी सी कविता भी लिख दें तो छपवाना चाहेंगे।
“ वैज्ञानिकाश्चं: कपिल: कणाद: सुश्रुतस्त था। चरको भास्क्राचार्यो वाराहमिहिर: सुधी:। नागार्जुनो भरद्धाजो बसुर्वुध:। ध्येायो वेंकटरामश्चस विज्ञा रामानुजादय:।
पश्चिम में एक धारणा प्रचलित की गई है कि भारत में साहित्य में अच्छा कार्य हुआ है। रामायण, महाभारत, मेघदूत और शकुंतला विलुप्त नहीं हुए। संगीत के क्षेत्र में भी काफी प्रगति हुई लेकिन भारत वैज्ञानिक प्रगति नहीं कर पाया। पश्चिम के लोग कहते हैं कि आपके साधु-संत आंखे मूंद लेते हैं और ब्रम्हाहण्ड देख लेते हैं। दुनियां जानती है कि शून्यं का आविष्कार भारत में हुआ इससे पहले यूरोप के अंदर दशमलव पद्धति नहीं अपनाई गई थी। रोमन लिपि में गिनती की जाती थी जिसमें अंको को ।, ।।, ।।। का प्रयोग किया जाता रहा। इसमें यदि हजार से उपर की संख्या लिखनी होतो समस्या खडी हो जाती है और गुणा-भाग करना तो और भी कठिन कार्य है। 13 वीं शताब्दी तक यूरोप में गुणा-भाग विश्वाविघालय स्तर पर पढाया जाता था। जोडने और घटाने के साथ ही गुणा-भाग का कार्य सिर्फ भारत में होता था क्यों कि हमारे यहां जीरो का आविष्कार हो चुका था। जीरो रहने से किसी भी अंक का मान दस गुना बढ जाता है। जीरो को सारे अरेबिया ने भारत से प्राप्त किया अरेबिया से यूरोप जाकर वह इंटरनेशनल फार्म आफ अरेबिक न्यूमरल कहा जाने लगा। आज भी अरब के लोग शून्य को हिंदसा कहते हैं तो यूरोप में इसे अरेबिक न्यूमरल कहा जाता है।
आर्यभटट ने पाई रेशो का मान 14 वीं शताब्दी में निकाला कि पाई का मान 3.14159256 होता है इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने रेडियस, वृत, डायामीटर आदि का भी उल्लेख किया है। महाभारत के शांति पर्व में कहा गया है कि योजनानां सहस्रेद्धि द्धिशत द्धियोजनम, वह प्रकाश जो एक निमिष इतना चलती है उसको नमस्कार है। महाभारत के समय रास्ते की माप योजन से होती थी, चार कोस का एक योजन और दो मील का एक कोस इसप्रकार आठ मील का एक योजन होता था। प्रकाश के बारे में शांति पर्व में कहा गया है कि दो हजार दो सौ योजन अर्ध निमिष में यात्रा करता है उसे नमस्कार है। निमिष अर्थात आदमी जितने समय में पलक झपकाता है या एक निमिष अर्थात सेकेंड का छठां भाग और अर्ध निमिष सेकेंड का बारहवां हिस्सा जिसमें प्रकाश अपनी दूरी तय करता है। अब इसतरह से जोड करें तो प्रकाश की गति लगभग दो लाख मील प्रति सेकेंड है। जो आज वैज्ञानिक मानते हैं वह वही है जो महाभारत के शांतिपर्व में कहा गया।
इसीप्रकार पृथ्वी की आयु की गणना भी भारतीयों ने अपने अनुसार कर लिया था कि पृथ्वी की आयु दो सौ करोड वर्ष है। हांलाकि कैल्वीन की गणना से लेकर रेडियो एक्टिीवीटी की गणना के बाद वैज्ञानिक अब इस निष्कार्ष पर आ गये हैं कि पृथ्वी की आयु दो सौ करोड वर्ष ही है। भारतीयों ने कहा ब्रम्हा् के एक हजार साल कलियुग है तो दो हजार वर्ष द्धापर, तीन हजार वर्ष त्रेता और चार हजार साल का सतयुग होता है। अब यदि हिसाब लगाये तो सतयुग के संधिकाल के दोनो ओर चार-चार सौ वर्ष और कलियुग के दोनो और सौ-सौ वर्ष का संधिकाल होता है पुराण के अनुसार तो एक महायुग बारह हजार साल का होगा। यह बारह हजार वर्ष ब्रम्हाा जी का एक वर्ष है। मानव का एक वर्ष ब्रम्हा जी का एका दिन होता है। ब्रम्हा जी का एक वर्ष मानव का 360 साल हुए तो संधिकाल जोडने पर ब्रम्हा के 1200 साल का कलियुग हुआ। तो कलियुग का समय निकालने के लिये 1200 में 360 का गुणा कर दें तो मानव के चार लाख बतीस हजार वर्ष आते हैं। इस हिसाब से पृथ्वी की आयु आज के वै‍ज्ञानिकों की खोज के समतुल्य हो जाती है।
पाईथागोरस से काफी पहले ही बौधायन ने यज्ञ वेदियों को लेकर समकोण त्रिभुज पर कार्य किया और अनेक बातें प्रगट की वहीं भाष्क्राचार्य ने सरफेस आफ द स्फीपयर का अध्ययन किया और कहा कि एक वृत का क्षेत्रफल 4 पाई आर स्कवायर होगा। हांलाकि यह तो बिना डिफरेंसियल कैलकुलस के निकल ही नहीं सकता तो यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि भाष्काराचार्य को डिफरेंसियल कैलकुलस का ज्ञान रहा होगा। मेडिकल साईंस में सुश्रुत और चरक ने काफी कार्य किया और शल्‍य चिकित्सा की प्रारंभिक जानकारी इनके ग्रंथो से मिलती है। शल्य क्रिया में कौन-कौन से उपकरण काम आते हैं इसका वर्णन सुश्रुत ने पहले ही कर दिया था। मोतियाबिंद से लेकर प्लानस्टिक सर्जरी तक में पहल भारत ने हजारों साल पहले ही कर दिया था।
एक हजार साल पुराना दिल्ली का लौह स्तंभ भारत के स्टेानलेस स्टील की खोज को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है जिसकी खोज अब जाकर दुनियां ने की है। जब पुरु और सिकंदर की भेंट हुई तो सिकंदर ने पुरु से भेंट में भारत वर्ष का लोहा मांगा ताकी वह उनसे तलवार बना सके और जब वह दुनियां के कुछ देशों में लडने गया तो उसके सैनिक ललकार कर कहते थे सावधान मेरा तलवार भारत के इस्पात से बना है, मेरी यह शमशीर एक बार में सिर को अलग कर देगी। वस्त्रों के मामले में कहा जाता है कि भारतीय मलमल 200 काउंट से उपर का बनता था और आज कंम्यूाटर भी 150 काउंट से अधिक का मलमल नही बना पाता।
महर्षि भारद्धाज ने सबसे पहले विमान शास्त्र की रचना की इसीतरह अगस्त संहिता में भी कई प्रकार के वैज्ञानिक ज्ञान की चर्चा की गई है। क्वांटम मेकेनिक और रिलेटिवीटी का सिद्धांत आने से काफी पहले ही हमारे वैज्ञानिकों ने कहा कि या पिण्डेा सो ब्रम्हाटण्डे् अर्थात जो ब्रम्हा्ण्डै में है वही हमारे पिण्डा में है। दुर्भाग्य से प्राचीन भारत के इस ज्ञान-विज्ञान के बारे में जिसे जानना चाहिये वे संस्कृत नही जानते और जो संस्कृ्त जानते हैं वे विज्ञान के बारे में नही जानते जब तक इन दोनो का संगम नही होता अनेक तथ्य ऐसे ही दबे रह जायेगें।

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