Saturday, June 1, 2013

जैन कह रहे हें कि ब्राह्मणों की रचना ही जैनियों के प्रथम चक्रवर्ती भरत ने की थी ।







जैन कह रहे हें कि ब्राह्मणों की रचना ही जैनियों के प्रथम चक्रवर्ती भरत ने की थी ।
जैन कह रहे हें कि जब जैनियों के प्रथम चक्रवर्ती भरत के पास धन, वैभव, विद्या आदि की अतिशयता हो गई तो उन्होंने परोपकार के विचार से अपने समस्त राज्यों से श्रेष्ठ श्रावकों ( मर्यादित जीवन जीने वाले जैन गृहस्थों ) को उत्सव के बहाने से राजमहल में आमंत्रित करवाया । राजा भरत ने परीक्षा लेने के लिए से राज-प्रांगण में हरी घास, फूल, पत्ती, और कोंपल बिछवा दी । लेकिन जब लोगों का आना प्रारंभ हुआ तो अव्रति लोग घांस, फूल, पत्ती आदि को रोंधते हुए महल में आ गए पर अणुव्रती ( दृढ़ता से अहिसादि व्रतों का पालन करने वाले जैन गृहस्थ ) बाहर रुक गए व वापस लोटने लगे । तब भरत ने उन्हें अन्य मार्ग से महल में बुलाकर पूछा कि आप लोग बाहर क्यों रुक गए और वापस क्यों जा रहे थे । इसपर उन श्रेष्ठ लोगों ने राजा भरत से कहा कि हम फूल, पत्ती आदि कुचलकर होने वाली जीव हिंसा करके किसी मान सम्मान और उत्सव में शामिल होने की इच्छा नहीं रखते ।
उन श्रेष्ठ लोगों को भरत ने महल में रोक लिया, उनका सम्मान किया, योग्यता अनुसार उन्हें यज्ञोपवित धारण कराया, उन्हें कर्मकाण्ड, संस्कारों, यज्ञ, मन्त्र आदि सिखाकर उनके कर्मो का निर्धारण कर उन्हें ब्राह्मण बनाकर चौथे वर्ण की स्थापना की । इसके पूर्व कोई ब्राह्मण नहीं होता था क्योंकि केवली ज्ञान प्राप्त त्रिकालज्ञ ऋषभ देव ( जैनियों के प्रथम तीर्थंकर ) ने दूरदर्शिता वश सिर्फ तीन वर्णों की ही रचना की थी ।
ब्राह्मणों की रचना करने के बाद राजा भरत के मन में यह आशंका होने लगी की जो कार्य मेरे महान पिता ने नहीं किया था वह करके मैंने कोई भूल तो नहीं की, और उन्हें अनेकों प्रकार के दुःस्वप्न दिखे। इन्ही आशंकाओ के निवारण हेतु एक दिन भरत अपने पिता ऋषभ देव के पास गए और पूछा की, हे प्रभो ! ब्राह्मणों की रचना करके मैंने कुछ अनुचित तो नहीं किया ?
इसपर ऋषभ देव ने कहा कि अगर सत्य जानना चाहता हे तो सुन, तूने बड़ा पाप कर्म कर दिया, तात्कालिक रूप देखें तो श्रेष्ठ श्रावकों को सम्मान देकर तूने कुछ अनुचित नहीं किया, पर यही ब्राह्मण पंचम काल ( जैन कलियुग जो महावीर की मृत्यु के तीन वर्ष बाद प्रारंभ हुआ और २१००० वर्षों तक चलेगा ) में धर्म मार्ग से विचलित हो जायेंगे, ये ब्राह्मण पशु मारकर मांसाहार करेंगे, यज्ञ में शराब पीकर अमर्यादित कार्य करेंगें । अपनी पुत्रवधु, और परायी स्त्री से सम्बन्ध बनायेंगे, दूसरे लोगों को अपनी स्त्री देंगे । अनेक पापों से अंधे हो जायेंगे ।
ये ब्राह्मण खोटे और मिथ्या शास्त्रों की रचना करके लोगों को ठगेंगे। परायी स्त्री के साथ मद्यपान और मांसाहार को व्रत कहेंगे। वेदों में विश्वास रखेंगे,
कपट पूर्ण धर्म-ग्रंथो की रचना करने वाले धीवरी-पुत्र ( माछुवारन के पुत्र ) व्यास और गर्धभी पुत्र (गधी ( female donkey) के पुत्र ) दुर्वासा को महर्षि मानकर पूजेंगे । अनेक पापों का पोषण करेंगे ये मूर्ख । ये गाय को देवी मानकर पूजेंगे। पृथ्वी, वायु, वनस्पति और जल को देवता कहेंगे ।
और पापकर्मों और हिंसा में लिप्त यही ब्राह्मण समीचीन मोक्ष-मार्ग ( जैन-धर्म ) के सबसे बड़े शत्रु हो जायेंगे ।
किसी भी हिन्दू की प्रज्ञा को हतप्रभ कर देने में सक्षम ब्राह्मणों की उत्पत्ती की यह कथा भिन्न भिन्न जैन आचार्यों ने अलग अलग प्रकार से लिखी हे, पर ब्राह्मणों, हिन्दू ऋषि, महर्षियों पर अवांछनीय और अमर्यादित टीका टिप्पणियाँ में किसी ने भी किसी सीमा का ध्यान नहीं रखा हे ।

जैनियों के महापुराण में जरा आचार्य पुष्पदंत की अमर्यादित भाषा देखें :
http://www.jaingranths.com/Home/Manuscript.aspx?id=92&&i=36
http://www.jaingranths.com/Home/Manuscript.aspx?id=92&&i=38
जैनियों के आदिपुराण में आचार्य जिनसेन ने यह कथा सबसे अधिक विस्तार से लिखी हे देखें :
अधिक जानकारी के लिए बीच के पेज भी खोल सकते हें ।
http://www.jaingranths.com/Manuscript.asp?id=2&i=328
http://www.jaingranths.com/Manuscript.asp?id=2&i=329
http://www.jaingranths.com/Manuscript.asp?id=2&i=330
http://www.jaingranths.com/Manuscript.asp?id=2&i=249
http://www.jaingranths.com/Manuscript.asp?id=2&i=250
जैन इतिहास-कार बलभद्र जैन ने मर्यादा बनाये रखने की कोशिस की हे पर सारांश वही हे ।
देखें :
http://www.jaingranths.com/Home/Manuscript.aspx?id=80&&i=112
http://www.jaingranths.com/Home/Manuscript.aspx?id=80&&i=113
आचार्य हेमचन्द्र शूरी की त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र आदि अनेक जैन धर्म ग्रंथो में यह कथा भिन्न भिन्न रूपों में देखी जा सकती हे ।
हिंदू धर्म के समस्त विद्वान जानते हें कि मौर्य काल के आसपास सनातन वैदिक हिन्दू धर्म में आयीं कुछ न्यूनताओं का लाभ उठाकर हिंदू धर्म के विरुद्ध अस्तित्व में आये जैन धर्म के ऎसे दर्जनों धर्म ग्रन्थ हें जो हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को गहन आघात पहुँचाने में सक्षम हें ।
यह बात जैन मतावलम्बी और जैन धर्म के विद्वान भी जानते थे, और इसीलिए बृहत् हिन्दू समाज से टकराव से बचने के लिए इन धर्म ग्रंथों में गहन आस्था होते हुए भी इनके प्रचार प्रसार से बचते थे । पर पता नहीं क्यों पिछले कुछ वर्षों से इन्टरनेट जैसे अंतर्राष्ट्रीय माध्यम पर जैन विद्वान,लेखक, मुनि, साधू, साध्वियां व जैन मतावलंबी, हिन्दू धर्म के विरुद्ध अवांछनीय टीका टिप्पणियों से भरे इन धर्म ग्रंथों के, जोर शोर से प्रचार प्रसार में लगे हुए हें ।
और दुर्भाग्य यह हे की यह सब जैनियों की अधिकृत वेब साइट्स, हजारों फोरम एवं ब्लोग्स के माध्यम से हो रहा हे ।

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